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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 9: मार्कण्डेय ऋषि को भगवान् की मायाशक्ति के दर्शन  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  12.9.15 
सक्ष्मान्तरिक्षं सदिवं सभागणं
त्रैलोक्यमासीत् सह दिग्भिराप्लुतम् ।
स एक एवोर्वरितो महामुनि-
र्बभ्राम विक्षिप्य जटा जडान्धवत् ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
—सहित; क्ष्मा—पृथ्वी; अन्तरिक्षम्—तथा बाह्य अवकाश; स-दिवम्—स्वर्गलोकों सहित; स-भा-गणम्—समस्त स्वर्गिक पिंडों समेत; त्रै-लोक्यम्—तीनों लोकों; आसीत्—हो गया; सह—सहित; दिग्भि:—सारी दिशाएँ; आप्लुतम्— जल से मग्न; स:—वह; एक:—अकेला; एव—निस्सन्देह; उर्वरित:—बचे हुए; महा-मुनि:—महामुनि; बभ्राम—घूमता रहा; विक्षिप्य—छितराये; जटा:—अपनी जटाएँ; जड—मूक व्यक्ति; अन्ध—अन्धा व्यक्ति; वत्—सदृश ।.
 
अनुवाद
 
 जल ने पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग तथा स्वर्ग-क्षेत्र को आप्लावित कर दिया। निस्सन्देह, सारा ब्रह्माण्ड सभी दिशाओं में जलमग्न था और उसके सारे निवासियों में से एकमात्र मार्कण्डेय ही बचे थे। उनकी जटाएँ छितरा गई थीं और ये महामुनि जल में अकेले इधर- उधर घूम रहे थे मानो मूक तथा अंधे हों।
 
 
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