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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 9: मार्कण्डेय ऋषि को भगवान् की मायाशक्ति के दर्शन  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  12.9.16 
क्षुत्तृट्परीतो मकरैस्तिमिङ्गिलै-
रुपद्रुतो वीचिनभस्वता हत: ।
तमस्यपारे पतितो भ्रमन् दिशो
न वेद खं गां च परिश्रमेषित: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
क्षुत्—भूख; तृट्—तथा प्यास से; परीत:—घिरे हुए; मकरै:—मकरों द्वारा; तिमिङ्गिलै:—तथा तिमिंगलों अर्थात् ह्वेल को भी खा जाने वाली विशाल मछली के द्वारा; उपद्रुत:—सताये हुए; वीचि—लहरों; नभस्वता—तथा वायुद्वारा; आहत:—सताये हुए; तमसि—अंधकार में; अपारे—असीम; पतित:—गिरे हुए; भ्रमन्—घूमते हुए; दिश:—दिशाएँ; न वेद—ज्ञान नहीं रहा; खम्—आकाश; गाम्—पृथ्वी; —तथा; परिश्रम-इषित:—थका हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 भूख-प्यास से सताये, दैत्याकार मकरों तथा विमिंगिल मछलियों द्वारा हमला किये गये तथा वायु और लहरों से त्रस्त, वे उस अपार अंधकार में निरुद्देश्य घूमते रहे जिसमें वे गिर चुके थे। जब वे अत्यधिक थक गये तो उन्हें दिशाओं की सुधि न रही और वे आकाश तथा पृथ्वी में भेद नहीं कर पा रहे थे।
 
 
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