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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 9: मार्कण्डेय ऋषि को भगवान् की मायाशक्ति के दर्शन  »  श्लोक 17-18
 
 
श्लोक  12.9.17-18 
क्‍वचिन्मग्नो महावर्ते तरलैस्ताडित: क्‍वचित् ।
यादोभिर्भक्ष्यते क्‍वापि स्वयमन्योन्यघातिभि: ॥ १७ ॥
क्‍वचिच्छोकं क्‍वचिन्मोहं क्‍वचिद्दु:खं सुखं भयम् ।
क्‍वचिन्मृत्युमवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दित: ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
क्वचित्—कभी; मग्न:—डूबते हुए; महा-आवर्ते—भारी भँवर में; तरलै:—लहरों से; ताडित:—थपेड़े खाकर; क्वचित्—कभी; यादोभि:—जल-जन्तुओं द्वारा; भक्ष्यते—खाये जाने से आशंकित; क्व अपि—कभी; स्वयम्—स्वयं; अन्योन्य—परस्पर; घातिभि:—आक्रमण करते हुए; क्वचित्—कभी; शोकम्—उदासी; क्वचित्—कभी; मोहम्—मोह; क्वचित्—कभी; दु:खम्—कष्ट; सुखम्—सुख; भयम्—भय; क्वचित्—कभी; मृत्युम्—मृत्यु; अवाप्नोति—अनुभव करता; व्याधि—रोग; आदिभि:—इत्यादि से; उत—भी; अर्दित:—पीडि़त ।.
 
अनुवाद
 
 कभी वे भारी भँवर में फँस जाते, कभी प्रबल लहरों के थपेड़े खाते, कभी जल-दैत्यों के परस्पर आक्रमण करने पर उनके द्वारा निगले जाने से आशंकित हो उठते। कभी उन्हें शोक, मोह, दुख, सुख या भय का अनुभव होता तो कभी उन्हें ऐसी भयानक बीमारी तथा पीड़ा का अनुभव होता जैसे कि वे मरे जा रहे हों।
 
 
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