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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 9: मार्कण्डेय ऋषि को भगवान् की मायाशक्ति के दर्शन  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  12.9.3 
वयं ते परितुष्टा: स्म त्वद् बृहद्‌व्रतचर्यया ।
वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदोऽस्मि त्वदीप्सितम् ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
वयम्—हम; ते—तुमसे; परितुष्टा:—पूर्णतया तुष्ट; स्म—हो चुके हैं; त्वत्—तुम्हारा; बृहत्-व्रत—आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की; चर्यया—सम्पन्नता द्वारा; वरम्—वर; प्रतीच्छ—चुनो; भद्रम्—कल्याण हो; ते—तुम्हारा; वर-द:—वर देने वाले; अस्मि—मैं हूँ; त्वत्-ईप्सितम्—आपके द्वारा चाहा हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 हम तुम्हारे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत से पूर्णतया तुष्ट हैं। अब जो वर चाहो, चुन लो क्योंकि मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कर सकता हूँ। तुम समस्त सौभाग्य का भोग करो।
 
तात्पर्य
 श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर बतलाते हैं कि भगवान् ने इस श्लोक के प्रारम्भ में बहुवचन “हम” का प्रयोग किया है क्योंकि वे अपना उल्लेख शिव तथा उमा के साथ-साथ कर रहे थे जिनकी स्तुति बाद में मार्कण्डेय द्वारा की जायेगी। तब भगवान् ने एकवचन “मैं” का प्रयोग किया क्योंकि अन्तत:, एकमात्र भगवान् नारायण (कृष्ण) ही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि— शाश्वत कृष्णभावनामृत—प्रदान कर सकते हैं।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥