तम्—उसके; अनु—पीछे; अथ—तब; वट:—बरगद का वृक्ष; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण, शौनक; सलिलम्—जल; लोक- सम्प्लव:—ब्रह्माण्ड का प्रलय; तिरोधायि—अदृश्य हो गये; क्षणात्—तुरन्त; अस्य—उसके सामने ही; स्व-आश्रमे— अपनी कुटिया में; पूर्व-वत्—पहले की तरह; स्थित:—उपस्थित था ।.
अनुवाद
हे ब्राह्मण, भगवान् के अदृश्य हो जाने पर, वह बरगद का वृक्ष, अपार जल तथा ब्रह्माण्ड का प्रलय—सारे के सारे विलीन हो गये और क्षण-भर में मार्कण्डेय ने पहले की तरह अपने को अपनी कुटिया में पाया।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत में बारहवें स्कन्ध के अन्तर्गत “मार्कण्डेय ऋषि को भगवान् की मायाशक्ति के दर्शन” शीर्षक नौवें अध्याय के श्रील भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के विनीत सेवकों द्वारा रचित तात्पर्य पूर्ण हुए।
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