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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  2.1.1 
श्रीशुक उवाच
वरीयानेष ते प्रश्न: कृतो लोकहितं नृप ।
आत्मवित्सम्मत: पुंसां श्रोतव्यादिषु य: पर: ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; वरीयान्—महिमायुक्त; एष:—यह; ते—तुम्हारा; प्रश्न:—प्रश्न, सवाल; कृत:—तुम्हारे द्वारा किया गया; लोक-हितम्—सभी मनुष्यों के लिए लाभप्रद; नृप—हे राजा; आत्मवित्—अध्यात्मवादी, योगी; सम्मत:—स्वीकृत; पुंसाम्—सभी पुरुषों का; श्रोतव्य-आदिषु—सभी प्रकार के श्रवण में; य:—जो है; पर:—परम, सर्वश्रेष्ठ ।.
 
अनुवाद
 
 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, आपका प्रश्न महिमामय है, क्योंकि यह समस्त प्रकार के लोगों के लिए बहुत लाभप्रद है। इस प्रश्न का उत्तर श्रवण करने का प्रमुख विषय है और समस्त अध्यात्मवादियों ने इसको स्वीकार किया है।
 
तात्पर्य
 यह प्रश्न स्वयंही इतना उत्तम है कि यह श्रवण करने (सुनने) का सर्वश्रेष्ठ विषय है। ऐसा प्रश्न करने तथा श्रवण करने मात्र से मनुष्य को सर्वोच्च जीवन-सिद्धि प्राप्त हो सकती है। चूँकि भगवान् कृष्ण आदि परम पुरुष हैं, अतएव उनके विषय में कोई भी प्रश्न मौलिक तथा पूर्ण है। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि जीवन की चरम सिद्धि कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त करना है। चूँकि कृष्ण विषयक प्रश्नोत्तर मनुष्य को दिव्य पद प्रदान करनेवाले हैं, अतएव कृष्णदर्शन के विषय में महाराज परीक्षित के प्रश्न अत्यन्त महिमामय हैं। महाराज परीक्षित अपने मन को पूर्ण रूप से कृष्ण में लीन करना चाहते थे और यह कृष्ण के असामान्य कार्यकलापों के श्रवणमात्र से ही सम्भव है। उदाहरणार्थ, भगवद्गीता में कहा गया है कि कृष्ण के आविर्भाव, तिरोधान तथा उनकी लीलाओं की दिव्य प्रकृति को समझ लेने मात्र से ही मनुष्य तुरन्त भगवद्धाम को वापस जा सकता है और इस दुखमय भौतिक जगत में फिर कभी नहीं लौटता। अतएव सदा ही कृष्ण के विषय में श्रवण करना बहुत शुभ होता है। महाराज परीक्षित ने इसीलिए शुकेदव गोस्वामी से प्रार्थना की कि वे कृष्ण के कार्यकलापों का वर्णन करें जिससे वे अपना मन कृष्ण में प्रवृत्त कर सकें। कृष्ण के कार्यकलाप साक्षात् कृष्ण से अभिन्न हैं। जब तक मनुष्य कृष्ण के ऐसे दिव्य कार्यकलापों को सुनने में मग्न रहता है तब तक वह इस जगत के बद्ध जीवन से विलग रहता है। कृष्ण की कथाएँ इतनी मंगलमय हैं कि वे वक्ता, श्रोता तथा जिज्ञासु को परि-शुद्ध बना देती हैं। उनकी तुलना उस गंगाजल से की जाती है, जो भगवान् कृष्ण के अँगूठे से निकलता है। गंगा का जल जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ की भूमि तथा उसमें स्नान करनेवाले व्यक्ति शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार कृष्ण कथाएँ इतनी शुद्ध हैं कि जहाँ भी इनका कथन होता है, वह स्थान, उनके श्रोता, जिज्ञासु, वक्ता तथा अन्य सारे सम्बद्ध लोग परि-शुद्ध हो जाते हैं।
 
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