श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  2.1.10 
तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान् ।
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान्मुकुन्दे मति: सती ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
तत्—वह; अहम्—मैं; ते—तुमको; अभिधास्यामि—सुनाऊँगा; महा-पौरुषिक:—भगवान् कृष्ण का अत्यन्त निष्ठावान भक्त; भवान्—आप; यस्य—जिसका; श्रद्दधताम्—पूरी तरह सम्मान तथा ध्यान देनेवाले का; आशु—अत्यन्त शीघ्र; स्यात्—ऐसा हो; मुकुन्दे—भगवान् में, जो मोक्ष-दाता हैं; मति:—श्रद्धा; सती—निश्चल ।.
 
अनुवाद
 
 मैं उसी श्रीमद्भागवत को आपको सुनाने जा रहा हूँ, क्योंकि आप भगवान् कृष्ण के अत्यन्त निष्ठावान भक्त हैं। जो व्यक्ति श्रीमद्भागवत को पूरे मनोयोग से तथा सम्मानपूर्वक सुनता है, उसे मोक्षदायक परमेश्वर की अविचल श्रद्धा प्राप्त होती है।
 
तात्पर्य
 श्रीमद्भागवत मान्य वैदिक वाङ्मय है और वैदिक ज्ञान को प्राप्त करने की प्रणाली अवरोहपन्था, अर्थात् प्रामाणिक शिष्य-परम्परा द्वारा दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की विधि कहलाती है। भौतिक ज्ञान की उन्नति के लिए वैयक्तिक सामर्थ्य तथा शोध प्रवृत्ति की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में सारी प्रगति बहुत कुछ गुरु की कृपा पर निर्भर करती है। गुरु को शिष्य से सन्तुष्ट होना चाहिए, तभी आध्यात्मिक विज्ञान के विद्यार्थी के समक्ष वह ज्ञान स्वत: प्रकट होगा। किन्तु इस विधि को किसी तरह की जादूगरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए जिसमें गुरु जादूगर की तरह शिष्य के भीतर आध्यात्मिक ज्ञान पहुँचा देगा मानो वह उसे विद्युतधारा से आवेशित कर रहा हो। प्रामाणिक गुरु अपने शिष्य को प्रत्येक बात वैदिक वाङ्मय के प्रमाणों के आधार पर बताता है। शिष्य ऐसी शिक्षा को, मात्र बौद्धिक न मानकर, विनीत भाव से जिज्ञासा करके तथा सेवा भाव से ग्रहण कर सकता है। भाव यह है कि शिष्य तथा गुरु दोनों को प्रामाणिक होना चाहिए। यहाँ पर गुरु शुकदेव गोस्वामी ने अपने महान् पिता से जो कुछ सीखा है, उसे वे उसी रूप में सुनाने के लिए उद्यत हैं और शिष्य, महाराज परीक्षित, भगवान् कृष्ण के परम भक्त हैं। भगवान् कृष्ण का भक्त वह होता है, जो निष्ठावान होकर यह विश्वास करता है कि भगवद्भक्त होकर, मनुष्य प्रत्येक आध्यात्मिक वस्तु से पूरी तरह सज-सँवर जाता है। यह शिक्षा साक्षात् भगवान् द्वारा भगवद्गीता के पृष्ठों में दी गई है, जिसमें यह स्पष्ट वर्णन है कि भगवान् कृष्ण ही सब कुछ हैं और पूर्णरूप से उनकी शरण ग्रहण करने से मनुष्य पूर्ण रूप से पवित्र व्यक्ति बन जाता है। भगवान् कृष्ण के प्रति ऐसी अविचल श्रद्धा से मनुष्य श्रीमद्भागवत का विद्यार्थी बन जाता है और वह अन्त में उसी तरह मोक्ष प्राप्त करता है, जिस तरह महाराज परीक्षित ने प्राप्त किया था। श्रीमद्भागवत के व्यावसायिक वाचक तथा छद्म भक्त, जिनकी श्रद्धा एक सप्ताह के सुनने पर निर्भर होती है, वे शुकदेव गोस्वामी तथा महाराज परीक्षित से भिन्न होते हैं। श्रीव्यासेदव ने शुकदेव गोस्वामी को जन्माद्यस्य श्लोक से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत सुनाई। अतएव शुकदेव गोस्वामी ने भी राजा को पूरी भागवत सुनाया। भगवान् कृष्ण को श्रीमद्भागवत (ग्यारहवें स्कंध) में महापुरुष के रूप में बताया गया है, जो कि स्वयं ही भक्तिमय स्वरूप में भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी भक्तिमयी प्रवृत्ति में साक्षात् भगवान् कृष्ण हैं, जो कलियुग की पतितात्माओं पर विशेष कृपा करनेके लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। भगवान् कृष्ण के इस महापुरुष स्वरूप की स्तुति करने के उपयुक्त, दो श्लोक हैं : ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् ॥

भृत्यार्तिहं प्रणतपालभवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् ॥

मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद् वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

(भागवत ११.५.३३-३४) दूसरे शब्दों में, पुरुष का अर्थ है भोक्ता और महापुरुष का अर्थ है परमभोक्ता या भगवान् श्रीकृष्ण। जो व्यक्ति परमेश्वर श्रीकृष्ण के पास तक पहुँचने के योग्य है, वह महापौरुषिक कहलाता है। जो कोई श्रीमद्भागवत को प्रामाणिक वाचक से ध्यानपूर्वक सुनता है, वह निश्चित रूप से मोक्ष के प्रदाता भगवान् का निष्ठावान भक्त बन जाता है। श्रीमद्भागवत को सुनने के मामले में महाराज परीक्षित जैसा सावधान कोई नहीं था और श्रीमद्भागवत को सुनाने के लिए शुकदेव गोस्वामी जैसा कोई सुयोग्य व्यक्ति नहीं था। इसलिए जो भी आदर्श वाचक या आदर्श श्रोता रूप शुकदेव गोस्वामी तथा महाराज परीक्षित के पदचिह्नों का अनुसरण करता है, निस्सन्देहवह उन्हीं की तरह मोक्ष प्राप्त करेगा। महाराज परीक्षित को केवल श्रवण द्वारा मोक्ष मिला और शुकदेव गोस्वामी ने केवल प्रवचन करके मोक्ष प्राप्त किया। प्रवचन (पाठ) तथा श्रवण, नौ भक्तिमय कार्यों में से दो कार्य हैं और इन सिद्धान्तों के आंशिक या समग्र रूप में पालन करने से मनुष्य को परम पद प्राप्त हो सकता है। अतएव श्रीमद्भागवत का सम्पूर्ण पाठ, जन्माद्यस्य श्लोक से प्रारम्भ करके बारहवें स्कंध के अन्तिम श्लोक तक, महाराज परीक्षित की मोक्ष-प्राप्ति के निमित्त शुकदेव गोस्वामी द्वारा सुनाया गया। पद्मपुराण में इसका उल्लेख है कि गौतम मुनि ने महाराज अम्बरीष को सलाह दी कि वे शुकदेव गोस्वामी द्वारा श्रीमद्भागवत के पारायण को नियमित रूप से सुनें। यहाँ इसकी पुष्टि है कि महाराज अम्बरीष ने श्रीमद्भागवत को आदि से अन्त तक उसी रूप में सुना जिस रूप में शुकदेव गोस्वामी ने उसका प्रवचन किया। अतएव जिसकी रुचि भागवत में है, उसे चाहिए कि वह कुछ अंश यहाँ से और कुछ अंश वहाँ से पढक़र उसके साथ खिलवाड़ न करें, अपितु वह महाराज अम्बरीष अथवा महाराज परीक्षित जैसे महान् राजाओं के पदचिह्नों का अनुसरण करे और उसे शुकदेव गोस्वामी के किसी प्रामाणिक प्रतिनिधि से ही सुने।

 
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