पिछले श्लोक में मुकुन्द के प्रति आसक्ति की नितान्त आवश्यकता का प्रतिपादन हुआ है। ऐसे विभिन्न प्रकार के लोग हैं, जो नाना प्रकार के कार्यों में सफलता प्राप्त करने के इच्छुक होते हैं। सामान्यतया ये लोग भौतिकतावादी हैं, जो भौतिक तृप्ति का सर्वाधिक भोग करना चाहते हैं। उनके बाद अध्यात्मवादियों का नम्बर आता है जिन्होंने भौतिक भोग की प्रकृति के विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है और इस तरह वे जीवन की भ्रामक शैली से दूर रहते हैं। न्यूनाधिक वे आत्म-साक्षात्कार द्वारा अपने आप में सन्तुष्ट रहते हैं। इनसे भी ऊपर भगवद्भक्त हैं, जो न तो भौतिक जगत को भोगने की कामना करते हैं और न इससे छुटकारा पाने की इच्छा करते हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण को तुष्ट करने में लगे रहते हैं। दूसरे शब्दों में, भगवद्भक्त अपने लिए कोई कामना नहीं करते। यदि भगवान् की इच्छा हो, तो भक्त समस्त भौतिक सुविधाओं को स्वीकार करते हैं और यदि भगवान् इसे नहीं चाहते, तो भक्तगण समस्त प्रकार की सुविधाएँ, यहाँ तक कि मोक्ष को भी, ताक पर रख सकते हैं। न ही वे आत्मतुष्ट (आत्माराम) होते हैं क्योंकि वे केवल भगवान् की ही तुष्टि चाहते हैं। इस श्लोक में श्रीशुकदेव गोस्वामी भगवान् के दिव्य कीर्तन की संस्तुति करते हैं। भगवान् के पवित्र नाम के निरपराध भाव से कीर्तन तथा श्रवण से मनुष्य पहले भगवान् के दिव्य रूप से परिचित होता है, फिर भगवान् के गुणों से और तब उनकी लीलाओं इत्यादि की दिव्य प्रकृति से परिचित होता है। यहाँ पर इसका उल्लेख हुआ है कि भगवन्नाम को अधिकारियों से सुनकर उसका निरन्तर कीर्तन करना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि अधिकारियों से श्रवण करना पहली शर्त है। पवित्र नाम का श्रवण करते रहने से, क्रमश: मनुष्य भगवान् के रूप, गुण, लीलाओं आदि के विषय में श्रवण करने की अवस्था को प्राप्त होता है और इस तरह उत्तरोत्तर उनकी महिमा के कीर्तन की आवश्यकता उत्पन्न होती है। यह विधि न केवल भक्ति की सफल सम्पन्नता के लिए संस्तुत की गई है, अपितु उन लोगों के लिए भी है, जो भौतिक रूप से आसक्त हैं। श्रीशुकदेव गोस्वामी के अनुसार, सफलता प्राप्त करने की यह सुस्थापित विधि है, जो न केवल उनके द्वारा अपितु समस्त अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा स्थापित की गई है। अतएव और आगे प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं रह जाती। यह विधि, न केवल आदर्शवादी सफलता के विभिन्न विभाग के जिज्ञासुओं के लिए संस्तुत है, अपितु उन लोगों के लिए भी है जिन्होंने कर्मी, दार्शनिक या भगवद्भक्त के रूप में पहले ही सफलता प्राप्त कर ली है। श्रील जीव गोस्वामी का उपदेश है कि भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन उच्चस्वर से और साथ ही पद्मपुराण की संस्तुति के अनुसार निरपराध भाव से सम्पन्न किया जाना चाहिए। मनुष्य भगवान् की शरण में जाकर, समस्त पापकर्मों के प्रभावों से अपने को उबार सकता है। मनुष्य भगवान् के नाम की शरण लेकर, अपने को भगवान् के चरणकमलों के प्रति अपराधों से छुड़ा सकता है। किन्तु यदि कोई भगवन्नाम के चरणों पर अपराध करता है, तो वह अपने को बचा नहीं सकता। पद्मपुराण में ऐसे अपराधों का उल्लेख है जिनकी संख्या दस बताई गई है।
पहला अपराध उन महान् भक्तों को कलंकित करना है, जिन्होंने भगवान् की महिमा का उपदेश किया है।
दूसरा अपराध है भगवान् के पवित्र नामों को संसारी ख्याति के रूप में देखना। भगवान् समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं। अतएव वे विभिन्न स्थानों में विभिन्न नामों से जाने जा सकते हैं, किन्तु इससे भगवान् की किसी तरह पूर्णता सिद्ध नहीं होती। भगवान् के लिए प्रयुक्त कोई भी नाम-शब्दावली, अन्य किसी भी नाम जैसी पवित्र है, क्योंकि वे सभी भगवान् के निमित्त हैं। ऐसे पवित्र नाम भगवान् के ही समान शक्तिशाली होते हैं और सृष्टि के किसी भी भाग में, भगवान् के किसी एक स्थानीय तौर पर परिचित नाम का कीर्तन करने तथा भगवान् की महिमा के गायन करने में, कोई रोकटोक नहीं है। सारे नाम कल्याणप्रद हैं और मनुष्य को चाहिए कि ऐसे नामों में भौतिक व्यापारिक वस्तु की तरह भेद-भाव नहीं समझे।
तीसरा अपराध है प्रधिकृत आचार्य या गुरु के आदेशों की उपेक्षा करना।
चौथा अपराध शास्त्रों को या वैदिक ज्ञान को कलंकित करना है।
पाँचवाँ अपराध भगवान् के पवित्र नाम को अपनी संसारी गणना के अनुसार परिभाषित करना है। भगवान् का पवित्र नाम भगवान् से अभिन्न है और मनुष्य को चाहिए कि भगवान् के पवित्र नाम को उनसे अभिन्न समझे।
छठा अपराध है पवित्र नाम की मनमानी व्याख्या। न तो भगवान् काल्पनिक हैं, न ही उनका पवित्र नाम काल्पनिक हैं। किन्तु कुछ ऐसे अल्पज्ञ हैं, जो भगवान् को पूजक की कल्पना मानते हैं और इस तरह उनके पवित्र नाम को काल्पनिक समझते हैं। ऐसे भगवन्नामजापक को पवित्रनाम के कीर्तन में वांछित सफलता प्राप्त नहीं हो सकती।
सातवाँ अपराध है पवित्र नाम के बल पर जानबूझ कर पाप करना। शास्त्रों में कहा गया है कि केवल भगवन्नाम के कीर्तन से समस्त पापकर्मों के प्रभावों से छूटा जा सकता हैं। जो व्यक्ति इस दिव्य विधि का लाभ उठाता है और इस उम्मीद से पाप करता जाता है कि भगवान् के पवित्र नाम के जप से पापों के प्रभाव निरस्त होते रहेंगे, तो वह पवित्र नाम के चरणों पर सबसे बड़ा अपराधी है। ऐसे अपराधी, शुद्धि की किसी भी संस्तुत विधि से, अपने को शुद्ध नहीं कर सकते। दूसरे शब्दों में, भले ही भगवान् के पवित्र नाम के जप के पूर्व कोई पापी हो, लेकिन भगवान् के पवित्र नाम की शरण ग्रहण कर लेने पर और प्रतिरक्षित बन जाने पर, मनुष्य को चाहिए कि वह इस आशा से पाप करने से विलग रहे कि यह पवित्र नाम-जप उसकी रक्षा करेगा।
आठवाँ अपराध है भगवान् के पवित्र नाम तथा उसकी जप-विधि को किसी भौतिक शुभकर्म के तुल्य समझना। भौतिक लाभ के लिए अनेक प्रकार के शुभकर्म हैं, लेकिन पवित्र नाम तथा इसका जप केवल पवित्र शुभ सेवा नहीं हैं। निस्सन्देह पवित्र नाम पवित्र सेवा है, लेकिन इसका उपयोग ऐसे कार्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए। चूँकि पवित्र नाम तथा भगवान् एक ही सत्ता हैं, अतएव पवित्र नाम को मानवता की सेवा में नहीं घसीटना चाहिए। भाव यह है कि परमेश्वर परम भोक्ता है। वह न तो किसी का सेवक है, न ही आदेश पालन है। इसी प्रकार चूँकि भगवान् का पवित्र नाम भगवान् से अभिन्न है, अतएव पवित्र नाम का उपयोग निजी सेवा के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
नवाँ अपराध है ऐसे लोगों को पवित्र नाम की दिव्य प्रकृति के विषय में उपदेश देना, जो भगवान् के पवित्र नाम का जप नहीं करना चाहते। यदि ऐसा उपदेश अनिच्छुक श्रोतागण को दिया जाता है, तो इस कार्य को पवित्र नाम के चरणों पर अपराध माना जाता है।
दसवाँ अपराध है पवित्र नाम की दिव्य प्रकृति के विषय में सुनने के बाद भी भगवान् के पवित्र नाम के प्रति अरुचि प्रदर्शित करना। भगवान् के पवित्र नाम के जप से जो प्रभाव अनुभव किया जाता है, वह है झूठे अहंकार की धारणा से जापक की मुक्ति। झूठा अहंकार, अपने को विश्व का भोक्ता समझने तथा यह सोचने के कारण प्रकट होता है कि विश्व की सारी वस्तुएँ उसी के उपयोग के लिए हैं। सारा भौतिकतावादी जगत ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ के झूठे अहंकार के वशीभूत है, किन्तु ऐसी भ्रान्त धारणा से मुक्त होना ही पवित्र नाम के जप का असली प्रभाव होता है।