मनुष्य को चाहिए कि जीवन के अन्तकाल में मृत्यु से तनिक भी भयभीत न हो, अपितु वह भौतिक शरीर से तथा उससे सम्बन्धित सारी वस्तुओं एवं उसकी समस्त इच्छाओं से अपनी आसक्ति तोड़ ले।
तात्पर्य
स्थूल भौतिकतावाद की मूर्खता यह है कि लोग इस संसार में स्थायी रूप से रहना चाहते हैं, जबकि यह निश्चित तथ्य है कि मनुष्य को बहुमूल्य मानवीय शक्ति से सृजित प्रत्येक वस्तु को यहीं छोडऩा पड़ता है। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, विज्ञानी, दार्शनिक आदि आत्मा की कोई जानकारी न होने के कारण मूर्ख हैं और वे सोचते हैं कि कुछ वर्षों का यह जीवन ही सब कुछ है, मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं है। संसार के विद्वन्मण्डल में भी, इस तरह का अल्पज्ञान मानवीय शक्ति के प्राणत्व का हनन कर रहा है और इसके भयावह परिणाम देखने को मिल रहे हैं। इतने पर भी मूर्ख भौतिकतावादी लोग इसकी परवाह नहीं करते कि अगले जीवन में क्या होने जा रहा है। भगवद्गीता का प्राथमिक उपदेश है कि मनुष्य यह जाने कि इस शरीर का अन्त होने पर जीव की पहचान समाप्त नहीं होती है, क्योंकि शरीर तो मात्र बाहरी वस्त्र है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र बदलता है, उसी तरह जीव शरीर बदलता है और शरीर का यह बदलाव (परिवर्तन) ही मृत्यु कहलाता है। अतएव वर्तमान जीवन-अवधि (आयु) के अन्त में शरीर की मृत्यु परिवर्तन की प्रक्रिया है। बुद्धिमान मनुष्य को इसके लिए तैयार रहना चाहिए और अगले जीवन में सर्वोत्तम प्रकार का शरीर पाने के लिए प्रयास करना चाहिए। सर्वोत्तम प्रकार का शरीर आध्यात्मिक शरीर है। यह उन लोगों को मिलता है, जो भगवद्धाम जाते हैं या ब्रह्म के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। इस स्कंध के द्वितीय अध्याय में इस विषय की विशद व्याख्या की जायेगी, लेकिन जहाँ तक शरीर-परिवर्तन की बात है, मनुष्य को चाहिए कि अभी से अगले जीवन की तैयारी करे। मूर्खलोग वर्तमान नश्वर जीवन को अधिक महत्त्व देते हैं और मूर्ख नेता शरीर तथा शारीरिक सम्बन्धों पर बल देते हैं। ये शारीरिक सम्बन्ध इस शरीर तक ही नहीं सीमित होते, अपितु परिजनों, पत्नी, बच्चों, समाज, देश तथा अन्य अनेक बातों तक विस्तारित होते हैं, जिनका अन्त मृत्यु के साथ हो जाता है। मृत्यु के पश्चात् मनुष्य वर्तमान शारीरिक सम्बन्धों को भूल जाता है। हमें इस प्रकार का थोड़ा अनुभव रात को सोते समय होता है। सोते समय हम इस शरीर को तथा सारे शारीरिक सम्बन्धों को भूल जाते हैं, यद्यपि यह विस्मृति कुछ घण्टों की क्षणिक अवस्था ही होती है। मृत्यु कुछ मासों के लिए निद्रा के अतिरिक्त कुछ नहीं, जिसमें दूसरा शारीरिक बन्धन विकसित होता है, जो हमें प्रकृति के नियम द्वारा हमारी आकांक्षा के अनुसार दिया जाता है। अतएव मनुष्य को इस वर्तमान शरीर की अवधि में आकांक्षा को परिवर्तित करना होता है। अतएव इस मनुष्य-जीवन में इसके लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता है। यह प्रशिक्षण जीवन की किसी भी अवस्था में, यहाँ तक कि मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व भी, चालू किया जा सकता है, किन्तु इसकी सामान्य विधि यह है कि यह प्रशिक्षण प्रारम्भ से, ब्रह्मचर्य अवस्था से शुरू किया जाय और धीरे-धीरे गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों की दिशा में इसमें प्रगति की जाये। इस प्रशिक्षण को देने वाली संस्था वर्णाश्रम धर्म या सनातन धर्म पद्धति कहलाती है, जो मनुष्य जीवन को पूर्ण बनाने की सर्वोत्तम विधि है। अतएव यह आवश्यक है कि जब मनुष्य अधिक से अधिक पचास वर्ष की आयु प्राप्त कर ले, तो वह पारिवारिक, सामाजिक या राजनैतिक जीवन से अपना नाता तोड़ ले और उसे वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम का प्रशिक्षण अगले जीवन की तैयारी के लिए दिया जाए। लेकिन जनता के नेता के रूप में मूर्ख भौतिकतावादी लोग पारिवारिक मामलों से सम्बन्ध-विच्छेद न करके उन्हीं के प्रति आसक्त रहते हैं। इस प्रकार वे प्रकृति के नियम के शिकार बनते हैं और अपने कर्म के अनुसार पुन: स्थूल शरीर प्राप्त करते हैं। ऐसे मूर्ख नेताओं को, जीवन के अन्तिम समय, लोगों से कुछ सम्मान प्राप्त हो सकता है, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि वे इस प्राकृतिक नियम से अछूते रहें, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के हाथ-पाँव जकड़े हुए रहते हैं। इसीलिए सबसे अच्छा यही है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छा से पारिवारिक सम्बन्धों को त्याग दे और इस तरह वह परिवार, समाज, देश आदि की आसक्ति को भगवद्भक्ति में स्थानान्तरित कर दे। यहाँ पर यह बताया गया है कि उसे पारिवारिक-आसक्ति की सारी इच्छाएँ त्याग देनी चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि श्रेष्ठतर इच्छाओं को अवसर दे अन्यथा ऐसी कुत्सित इच्छाओं के परित्याग का अवसर नहीं आयेगा। इच्छा तो जीव के साथ जुड़ी है। चूँकि जीव शाश्वत है, अतएव जीव की इच्छाएँ भी जो उसके लिए स्वाभाविक हैं, शाश्वत हैं। अतएव मनुष्य इच्छा करना छोड़ नहीं सकता, किन्तु इच्छाओं की विषयवस्तु तो बदली ही जा सकती है। इस तरह मनुष्य को भगवद्धाम जाने की इच्छा विकसित करनी चाहिए। इससे भक्ति के विकास के अनुपात के अनुसार भौतिक लाभ, भौतिक सम्मान तथा भौतिक लोकप्रियता की इच्छाएँ स्वत: कम होंगी। जीव तो सेवा-कार्यों के निमित्त है और उसकी इच्छाएँ इसी सेवा-मनोवृत्ति के चारों ओर केन्द्रित रहती हैं। राज्य के सर्वोच्च प्रशासक से लेकर सडक़ के नगण्य भिखारी तक सभी लोग दूसरों की कोई न कोई सेवा कर रहे हैं। ऐसी सेवा-मनोवृत्ति को पूर्णता तभी प्राप्त होती है जब सेवा की इच्छा को पदार्थ से आत्मा में, या शैतान से ईश्वर में स्थानान्तरित कर दिया जाय।
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