अभ्यसेत्—अभ्यास करना चाहिए; मनसा—मन से; शुद्धम्—पवित्र; त्रि-वृत्—तीन (अक्षरों) से निर्मित; ब्रह्म-अक्षरम्—दिव्य अक्षर; परम्—परम; मन:—मन; यच्छेत्—वश में करे; जित-श्वास:—श्वास को नियमित करके; ब्रह्म—परम; बीजम्—बीज को; अविस्मरन्—बिना भुलाये ।.
अनुवाद
मनुष्य उपर्युक्त विधि से आसन जमा कर, मन को तीन दिव्य अक्षरों (अ, उ, म्) का स्मरण कराये और श्वास-विधि को नियमित करके मन को वश में करे, जिससे वह दिव्य बीज को नहीं भूले।
तात्पर्य
ॐकार अथवा प्रणव दिव्य अनुभूति का बीज है और यह तीन दिव्य अक्षरों अ, उ, म् से बना है। समाधि प्राप्त करने की दिव्य किन्तु यान्त्रिक विधि के द्वारा, जिसे महान् योगियों के अनुभव से खोजा गया है, श्वास-विधि (प्राणायाम) के साथ-साथ मन से जप करने से भौतिकता में लीन मन को वश में किया जा सकता है। मन की आदत को बदलने की यही विधि है। मन को मारना नहीं होती है। मन या इच्छा को रोका नहीं जा सकता, लेकिन आध्यात्मिक अनुभूति की दिशा में काम करने के लिए मन की व्यस्तता के गुण को बदला जा सकता है। मन सक्रिय इन्द्रियों की धुरी है। अतएव यदि सोचने, अनुभव करने तथा चाहने की प्रकृति परिवर्तित कर दी जाय तो स्वाभाविक है कि कर्मेन्द्रियों के कार्यों की प्रकृति भी बदल जायेगी। ॐकार समस्त दिव्य ध्वनि का बीज है और एकमात्र दिव्य ध्वनि ही मन तथा इन्द्रियों में वांछित परिवर्तन ला सकती है। यहाँ तक कि मानसिक रूप से असन्तुलित व्यक्ति भी दिव्य ध्वनि के उपचार से निरोग बनाया जा सकता है। भगवद्गीता में प्रणव (ॐकार) को परम सत्य की प्रत्यक्ष शाब्दिक अभिव्यक्ति कहा गया है। जो व्यक्ति उपर्युक्त विधि से भगवान् के पवित्र नाम का प्रत्यक्ष उच्चारण नहीं कर पाता, वह प्रणव (ॐकार) का जप आसानी से कर सकता है। यह ॐकार एक सम्बोधन है—यथा हे भगवान्! जिस प्रकार कि ॐ हरि ओम् का अर्थ है, हे मेरे स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्। जैसाकि हम पहले कह चुके हैं, भगवान् का पवित्र नाम भगवान् से अभिन्न होता है। उसी तरह ॐकार भी है। किन्तु जो व्यक्ति अपनी अपूर्ण इन्द्रियों के कारण (यथा नवदीक्षित) भगवान् के दिव्य साकार रूप या नाम की अनुभूति कर पाने में अक्षम होते हैं, उन्हें प्राणायाम का अभ्यास करने के साथ-साथ मन में प्रणव (ॐकार) का बारम्बार उच्चारण करके आत्म-साक्षात्कार का अभ्यास करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। जैसाकि हम कई बार कह चुके हैं, भगवान् के दिव्य नाम, रूप, गुणों, लीलाओं इत्यादि को वर्तमान इन्द्रियों द्वारा समझ पाना असम्भव है, अतएव यह आवश्यक है कि समस्त विषयों के केन्द्र-बिन्दु मन के माध्यम से ऐसी दिव्य अनुभूति को गति प्रदान की जाय। भक्तगण अपने मन को सीधे ही परम सत्य-रूपी पुरुष पर स्थिर कर लेते हैं, किन्तु जो लोग ब्रह्म के ऐसे साकार स्वरूप को धारण नहीं कर सकते, उन्हें निर्विशेषता के प्रति मन को प्रशिक्षित करके प्रगति करने के लिए अनुशासित किया जाता है।
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