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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  2.1.18 
नियच्छेद्विषयेभ्योऽक्षान्मनसा बुद्धिसारथि: ।
मन: कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेद्धिया ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
नियच्छेत्—खींच ले; विषयेभ्य:—विषयों से; अक्षान्—इन्द्रियों को; मनसा—मन से; बुद्धि—बुद्धि; सारथि:—हाँकनेवाला; मन:—मन; कर्मभि:—सकाम कर्म से; आक्षिप्तम्—लीन रहकर; शुभ-अर्थे—भगवान् के निमित्त; धारयेत्—धारण करे; धिया—पूर्ण चेतना में ।.
 
अनुवाद
 
 धीरे-धीरे जब मन उत्तरोत्तर आध्यात्मिक हो जाय, तो उसे इन्द्रिय-कार्यों से खींच लिया जाय (विलग कर लिया जाय)। इससे इन्द्रियाँ बुद्धि द्वारा वशीभूत हो जायेंगी। इससे भौतिक कार्य- कलापों में लीन मन भी भगवान् की सेवा में प्रवृत्त किया जा सकता है और पूर्ण दिव्य भाव में स्थिर हो सकता है।
 
तात्पर्य
 प्रणव (ॐकार) के यान्त्रिक उच्चारण के द्वारा तथा श्वास के अवरोध (प्राणायाम) से मन के अध्यात्मीकरण की प्रथम प्रक्रिया (विधि) प्राणायाम् की यौगिक विधि या श्वास को पूर्ण रूप से नियन्त्रित करने की विधि कहलाती है। इस प्राणायाम-पद्धति की चरम अवस्था समाधि है। किन्तु अनुभव से सिद्ध हो चुका है कि समाधि-अवस्था भी भौतिकता में लीन मन को वश में करने में असफल रहती है। उदाहरणार्थ, विश्वामित्र समाधि-अवस्था प्राप्त करके भी इन्द्रियों के शिकार हो गये और उन्होंने मेनका के साथ सम्भोग किया। इतिहास इसका साक्षी है। यद्यपि मन सम्प्रति विषय वासनाओं को सोचना बन्द कर देता है, किन्तु अवचेतन-मन से वह विगत विषय-वासनाओं का स्मरण करता है और इस तरह मनुष्य को शत प्रतिशत आत्म-साक्षात्कार में लगने से रोक देता है। अतएव शुकदेव गोस्वामी विश्वस्त नीति अपनाने के लिए कहते हैं और यह है मन को भगवान् की सेवा में स्थिर करना। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रत्यक्ष विधि की संस्तुति भगवद्गीता (६.४७) में भी करते हैं। इस तरह आध्यात्मिक रूप से मन के स्वच्छ होने पर, मनुष्य को तुरन्त श्रवण, कीर्तन आदि भक्ति-कार्यों द्वारा भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाना चाहिए। यदि सही मार्गदर्शन के अन्तर्गत ऐसा किया जाता है, तो विचलित मन भी निश्चित रूप से प्रगति कर सकता है।
 
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