श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  2.1.21 
यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षण: ।
आशु सम्पद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षत: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
यस्याम्—ऐसे सुनियोजित स्मरण से; सन्धार्यमाणायाम्—और इस तरह के अभ्यास में स्थिर होकर; योगिन:—योगीजन; भक्ति- लक्षण:—भक्तियोग का अभ्यास करके; आशु—शीघ्र; सम्पद्यते—सफलता प्राप्त करता है; योग:—भक्तिमयी सेवा से सम्बन्ध; आश्रयम्—शरण के अन्तर्गत; भद्रम्—कल्याण; ईक्षत:—देखते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, स्मरण की इस पद्धति से तथा भगवान् के कल्याणप्रद साकार-स्वरूप का दर्शन करने के अभ्यास में स्थिर होने से, मनुष्य भगवान् के प्रत्यक्ष आश्रय के अन्तर्गत उनकी भक्ति को शीघ्र ही प्राप्त कर सकता है।
 
तात्पर्य
 योग की सिद्धियाँ भक्तिमयी प्रवृत्ति के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती हैं। ब्रह्मवाद, जो कि सर्वशक्तिमान की सर्वत्र उपस्थिति को अनुभव करने की पद्धति है, एक प्रकार का मन का प्रशिक्षण है, जिससे भक्तिमयी धारणा के प्रति अभ्यस्त हुआ जाता है और योगी को इसी भक्तिमयी प्रवृत्ति से ऐसे यौगिक प्रयासों की सफल परिणति संभव होती है। किन्तु भक्ति के रंचमात्र मिश्रण बिना, मनुष्य को ऐसा सफल पद प्राप्त नहीं होता। ब्रह्मवाद की दृष्टि से जो भक्तिमय वातावरण उत्पन्न होता है, वह आगे चलकर भक्ति में विकसित हो जाता है और निर्विशेषवादी के लिए यही एकमात्र लाभ है। भगवद्गीता (१२.५) में पुष्टि हुई है कि आत्म-साक्षात्कार का निर्विशेष मार्ग अधिक कष्टप्रद है, क्योंकि यह घूमकर लक्ष्य तक पहुँचता है, यद्यपि निर्विशेषवादी भी काफी समय बाद भगवान् के साकार रूप के प्रति आकृष्ट होता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥