विशेष:—साकार; तस्य—उसका; देह:—शरीर; अयम्—यह; स्थविष्ठ:—स्थूल रूप से भौतिक; च—तथा; स्थवीयसाम्— समस्त पदार्थ का; यत्र—जहाँ; इदम्—ये सारे नियम; व्यज्यते—अनुभव किया जाता है; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; भूतम्—विगत; भव्यम्—भविष्य; भवत्—वर्तमान; च—तथा; सत्—फलीभूत, परिणामी ।.
अनुवाद
सम्पूर्ण व्यवहार-जगत की यह विराट अभिव्यक्ति परम सत्य का साक्षात् शरीर है, जिसमें ब्रह्माण्ड के भूत, वर्तमान एवं भविष्य का अनुभव किया जाता है।
तात्पर्य
कोई भी वस्तु, चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक, भगवान् की शक्ति का विस्तार मात्र है और जैसाकि भगवद्गीता (१३.१३) में कहा गया है, सर्वशक्तिमान भगवान् की अपनी दिव्य आँखें, सिर तथा अन्य शारीरिक अंग होते हैं, जो सर्वत्र व्याप्त हैं। वे कहीं भी और सर्वत्र देख, सुन, छू या अपने को प्रकट कर सकते हैं, क्योंकि वे समस्त सूक्ष्मजीवों में परमात्मा के रूप में सर्वत्र विद्यमान हैं, यद्यपि उनका विशेष धाम परम जगत में है। यह सापेक्ष जगत भी उनका व्यावहारिक प्रस्तुतीकरण है, क्योंकि यह उनकी दिव्य शक्ति के विस्तार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यद्यपि वे अपने धाम में रहते हैं, किन्तु उनकी शक्ति सर्वत्र उसी तरह वितरित रहती है, जिस प्रकार सूर्य, स्थिर रहकर भी, सर्वत्र प्रसारित रहता है, क्योंकि सूर्य की किरणें सूर्य से अभिन्न होने के कारण सूर्य-गोलक का विस्तार ही मानी जाती है। विष्णु पुराण (१.२२.५२) में यह कहा गया है कि जिस प्रकार अग्नि एक स्थान में रहकर, अपनी किरणें तथा उष्मा फैलाती है, उसी प्रकार परमात्मा या भगवान्, अपनी बहुविधि शक्ति से, सर्वत्र अपना विस्तार करते हैं। विराट ब्रह्माण्ड की यह अभिव्यक्ति उनके विराट शरीर का अंश मात्र है। अल्पज्ञ लोग भगवान् के सर्व-आध्यात्मिक दिव्य स्वरूप की कल्पना भी नहीं कर सकते, लेकिन वे उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा उसी तरह आश्चर्यचकित रहते हैं, जिस तरह आदिम प्रजाति के लोग आकाश की बिजली, विशाल पर्वत या विस्तृत बरगद के पेड़ को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। वे लोग व्याघ्र तथा हाथी के बल की प्रशंसा उनकी श्रेष्ठ शक्ति तथा शौर्य के लिए करते हैं। यद्यपि शास्त्रों में भगवान् का विशद् विवरण दिया हुआ है, यद्यपि भगवान् अवतरित होते हैं और अपनी असामान्य शक्ति तथा शौर्य का प्रदर्शन करते हैं और यद्यपि वे विद्वान पण्डितों तथा भूतकाल के व्यासदेव, नारद, असित एवं देवल जैसे सन्तों तथा भगवद्गीता में अर्जुन द्वारा एवं आधुनिक युग में भी शंकर, रामानुज, मध्व तथा भगवान् श्री चैतन्य जैसे आचार्यों के द्वारा, भगवान् के रूप में स्वीकार किये जाते हैं, लेकिन असुरगण भगवान् के अस्तित्व को नहीं मानते। असुरगण शास्त्रों के किसी भी साक्ष्य को स्वीकार नहीं करते, न ही वे आचार्यों के प्रमाण को मान्यता देते हैं। वे तुरन्त अपनी आँखों से उन्हें देखना चाहते हैं, अतएव वे भगवान् के शरीर को विराट रूप में देख सकते हैं और वही रूप उनकी चुनौती का उत्तर दे सकता है और चूँकि वे व्याघ्र, हाथी या वज्र जैसी श्रेष्ठ भौतिक वस्तुओं के समक्ष श्रद्धावनत होने के आदी हैं, अतएव वे विराट रूप को सम्मान प्रदान करते हैं। अर्जुन द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने असुरों के लिए विराट रूप प्रदर्शित किया। भगवान् का शुद्ध भक्त भगवान् के ऐसे संसारी विराट शरीर को देखने का आदी नहीं होता, अतएव इसे देखने के लिए उसे विशेष दृष्टि की आवश्यकता होती है। इसीलिए भगवान् ने अर्जुन को विशेष दृष्टि प्रदान करने की अनुकम्पा की, जिससे वह उनके विराट रूप का दर्शन कर सके, जिसका वर्णन भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में किया गया है। भगवान् का यह विराट रूप अर्जुन के लाभ के लिए नहीं, अपितु उन अल्पज्ञ व्यक्तियों के लिए है, जो हर किसी को भगवान् का अवतार मान लेते हैं और इस तरह जनसामान्य को गुमराह करते रहते हैं। उनके लिए यह संकेत है कि मनुष्य ऐसे सस्ते अवतार से कहे कि तुम अपना विराट रूप दिखलाओ और अपने को अवतार सिद्ध करो। भगवान् के विराट रूप का प्राकट्य एकसाथ, नास्तिकों के लिए चुनौती तथा असुरों के लिए कृपा है, जो भगवान् को विराट समझ सकें और इस तरह धीरे धीरे अपने हृदय के मल को स्वच्छ कर सकें, जिससे वे निकट भविष्य में भगवान् के दिव्य रूप को सचमुच देखने के योग्य हो सकें। यह समस्त नास्तिकों तथा निपट भौतिकतावादियों के लिए सर्वदयालु भगवान् का वरदान है।
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