अण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराज: पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रय: ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
अण्ड-कोशे—ब्रह्माण्ड-रूपी खोल के भीतर; शरीरे—शरीर में; अस्मिन्—इस; सप्त—सात; आवरण—आवरण, खोले; संयुते—ऐसा करके; वैराज:—विराट स्वरूप; पुरुष:—भगवान् के स्वरूप; य:—जो; असौ—वह; भगवान्—भगवान्; धारणा—धारणा का; आश्रय:—वस्तु, विषय ।.
अनुवाद
भौतिक तत्त्वों के द्वारा सात प्रकार से प्रच्छन्न ब्रह्माण्डीय खोल (आवरण) रूपी शरीर के भीतर भगवान् का विराट ब्रह्माण्डीय स्वरूप विराट धारणा का विषय है।
तात्पर्य
एक ही समय में भगवान् के अन्य अनेक रूप होते हैं और वे सभी भगवान् श्रीकृष्ण के मूल स्रोत रूप से अभिन्न हैं। भगवद्गीता में यह सिद्ध किया जा चुका है कि भगवान् का आदि दिव्य तथा शाश्वत रूप श्रीकृष्ण हैं और वे अपनी अचिन्त्य अन्तरंगा शक्ति से अर्थात् आत्ममाया से, अपने आपको विविध रूपों तथा अवतारों में एकसाथ विस्तारित कर सकते हैं, लोभी उनकी पूर्णशक्ति में कोई कमी नहीं आती। वे पूर्ण हैं और यद्यपि उनसे असंख्य पूर्ण रूप उद्भूत होते हैं, तो भी वे पूर्ण हैं और उनमें किसी प्रकार की घटत नहीं आती। यह उनकी आध्यात्मिक या अन्तरंगा शक्ति है। भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने उन अल्पज्ञों को आश्वस्त करने के लिए अपना विराट रूप प्रकट किया, जो यह नहीं सोच पाते कि वे मनुष्य की भाँति प्रकट हो सकते हैं तथा उनमें वास्तव में वह शक्ति है, जिसके बल पर वे बिना किसी प्रतिद्वन्द्वी के परम पुरुष होने का दम भर सकते हैं। यद्यपि भौतिकतावादी लोग अत्यन्त भोंड़े ढंग से विशाल ब्रह्माण्डीय आकाश के विषय में सोच सकते हैं जिसमें सूर्य के समान विशाल असंख्य लोक होते हैं, वे अपने ऊपर के वृत्ताकार आकाश को ही देख सकते हैं और उन्हें इस ब्रह्माण्ड की तथा इसी के साथ-साथ लाखों ब्रह्माण्डों की भी कोई जानकारी नहीं होती जो जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, प्रकृति तत्त्व तथा प्रकृति के सात आवरणों से ढके हैं जिस प्रकार एक बहुत बड़ा फुटबाल, जिसमें हवा भरी हो और ढका हो, कारणार्णव के जल पर तैर रहा हो, जहाँ महाविष्णु के रूप में भगवान् शयन करते हैं। सारे ब्रह्माण्ड बीज-रूप में महाविष्णु के श्वास से उद्भूत हो रहे हैं, जो भगवान् के अंश हैं। जब महाविष्णु अपना लम्बा श्वास भीतर खींचते हैं, तो ब्रह्मा द्वारा अधिष्ठित सारे ब्रह्माण्ड विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार भगवान् की परम इच्छा द्वारा भौतिक जगत उत्पन्न तथा विनष्ट होते रहते हैं। बेचारा, मूर्ख भौतिकतावादी इतनी ही कल्पना कर सकता है कि वह कितनी मूर्खतापूर्वक एक मरणधर्मा नगण्य जीव को दावे के साथ भगवान् के प्रतिद्वन्द्वी अवतार के रूप में प्रस्तुत करता है। यह विराट रूप, विशेष रूप से भगवान् द्वारा अल्पज्ञों को पाठ पढ़ाने के लिए, प्रकट किया गया था जिससे कोई मनुष्य अन्य किसी मनुष्य को तभी भगवान् का अवतार स्वीकार करे जब वह ऐसे विराट रूप को उसी तरह प्रदर्शित कर सके जिस तरह भगवान् कृष्ण ने किया था। भौतिकतावादी व्यक्ति अपने निजी लाभ के लिए, जैसा शुकदेव गोस्वामी ने संस्तुति की है, भगवान् के विराट रूप पर अपने मन को केन्द्रित कर सकता है, किन्तु उसे सावधान रहना चाहिए कि वह उन वंचकों से पथभ्रष्ट न हो जो अपने को भगवान् कृष्ण से अभिन्न पुरुष होने का दावा करते हैं, किन्तु वे उनकी तरह कर्म नहीं कर पाते या विराट रूप नहीं प्रदर्शित कर पाते।
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