श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  2.1.26 
पातालमेतस्य हि पादमूलं
पठन्ति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् ।
महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ
तलातलं वै पुरुषस्य जङ्घे ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
पातालम्—ब्रह्माण्ड के अधोलोक; एतस्य—उनका; हि—निश्चय ही; पाद-मूलम्—पाँवों के तलवे; पठन्ति—वे अध्ययन करते हैं; पार्ष्णि—एडिय़ाँ; प्रपदे—पंजे; रसातलम्—रसातल नाम का लोक; महातलम्—महातल नामक लोक; विश्व-सृज:— ब्रह्माण्ड के स्रष्टा का; अथ—इस प्रकार; गुल्फौ—टखने; तलातलम्—तलातल नामक लोक; वै—वे जैसे हैं; पुरुषस्य— विराट पुरुष की; जङ्घे—पिंडलियाँ ।.
 
अनुवाद
 
 जिन पुरुषों ने इसकी अनुभूति की है, उन्होंने यह अध्ययन किया है कि पाताल लोक विराट पुरुष के पाँवों के तलवे हैं तथा उनकी एडिय़ाँ और पंजे रसातल लोक हैं। टखने महातल लोक हैं तथा उनकी पिंडलियाँ तलातल लोक हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् के शरीर के अतिरिक्त इस दृश्य जगत के अस्तित्व में कोई सचाई नहीं है। व्यक्त जगत की प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर आधारित है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता (९.४) में की गई है, किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं होता है कि भौतिकतावादी की दृष्टि से जो भी दिखता है, वही परम पुरुष है। भगवान् के विराट रूप की धारणा भौतिकतावादी को परमेश्वर के विषय में सोचने का अवसर प्रदान करती है, किन्तु भौतिकतावादी को यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि प्रभुता दिखाने की भावना रखते हुए जगत की कल्पना करना कभी भी ईश-साक्षात्कार नहीं हो सकता। भौतिक संसाधनों के शोषण का भौतिकतावादी दृष्टिकोण भगवान् की बहिरंगा शक्ति के भ्रम के कारण होता है, अतएव यदि कोई भगवान् के विराट रूप की धारणा से परम सत्य की अनुभूति करना चाहता है, तो उसे सेवा भाव उत्पन्न करना होगा। सेवा-भाव उत्पन्न किये बिना, दर्शक पर विराट साक्षात्कार की धारणा का नगण्य प्रभाव पड़ेगा। दिव्य भगवान् के स्वरूप की कोई धारणा भौतिक सृष्टि का अंग नहीं होती। वे सम्पूर्ण परिस्थितियों में अपनी सत्ता को परमात्मा रूप में बनाये रखते हैं और तीनों भौतिक गुणों से कभी भी प्रभावित नहीं होते, क्योंकि प्रत्येक भौतिक वस्तु कल्मषग्रस्त है। भगवान् सदैव अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर विद्यमान रहते हैं।

यह ब्रह्माण्ड चौदह लोकों में विभक्त है। इनमें से सात लोक, जिनके नाम भूर्, भुवर्, स्वर्, महर्, जनस्, तपस् तथा सत्य हैं, ऊर्ध्वलोक कहलाते हैं और वे एक दूसरे के ऊपर स्थित हैं। इसी तरह सात अधोलोक हैं, जो अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल तथा पाताल कहलाते हैं और क्रमश: एक दूसरे के नीचे हैं। इस श्लोक में नीचे से वर्णन प्रारम्भ होता है, क्योंकि भक्ति के अनुसार, भगवान् का शारीरिक वर्णन उनके पाँवों से प्रारम्भ करना चाहिए। शुकदेव गोस्वामी भगवान् के मान्य भक्त हैं और उनका यह वर्णन एकदम सही है।

 
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