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श्लोक 2.1.27  |
द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्ते-
रूरुद्वयं वितलं चातलं च ।
महीतलं तज्जघनं महीपते
नभस्तलं नाभिसरो गृणन्ति ॥ २७ ॥ |
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शब्दार्थ |
द्वे—दो; जानुनी—घुटने; सुतलम्—सुतल नामक लोक; विश्व-मूर्ते:—विराट रूप के; ऊरु-द्वयम्—दोनों जाँघें; वितलम्— वितल लोक; च—भी; अतलम्—अतल लोक; च—तथा; महीतलम्—महातल लोक; तत्—उसका; जघनम्—कटि-प्रदेश; महीपते—हे राजा; नभस्तलम्—बाह्य अन्तरिक्ष; नाभि-सर:—नाभि का गड्ढा; गृणन्ति—कहते हैं ।. |
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अनुवाद |
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विश्व-रूप के घुटने सुतल नामक लोक हैं तथा दोनों जाँघें वितल तथा अतल लोक हैं। कटि-प्रदेश महीतल है और उसकी नाभि का गड्ढा बाह्य अन्तरिक्ष है। |
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