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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  2.1.28 
उर:स्थलं ज्योतिरनीकमस्य
ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य ।
तपो वराटीं विदुरादिपुंस:
सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्ण: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
उर:—उच्च; स्थलम्—स्थान (छाती); ज्योति:-अनीकम्—ज्योतिष्क; अस्य—उसकी; ग्रीवा—गर्दन; मह:—ज्योतिष्कों के ऊपर का लोक; वदनम्—मुख; वै—ठीक उसी तरह; जन:—इस लोक के ऊपर का लोक; अस्य—उनका; तप:—जन: लोक के ऊपर का लोक; वराटीम्—मस्तक; विदु:—जाना जाता है; आदि—मूल; पुंस:—पुरुष; सत्यम्—सर्वोच्च लोक; तु— लेकिन; शीर्षाणि—शिर; सहस्र—एक हजार; शीर्ष्ण:—शिरों से युक्त ।.
 
अनुवाद
 
 विराट रूप वाले आदि पुरुष की छाती ज्योतिष्क (स्वर्ग) लोक है, उसकी गर्दन महर्लोक है, उसका मुख जन:लोक है और उसका मस्तक तप:लोक है। सर्वोच्च लोक, जिसे सत्यलोक कहते हैं, एक हजार सिरों (मस्तिष्कों) वाले उनआदि पुरुष का सिर है।
 
तात्पर्य
 सूर्य तथा चन्द्रमा जैसे तेजवान ज्योतिर्लोक ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित हैं, अतएव वे भगवान् के आदि विराट रूप के वक्ष:स्थल कहलाते हैं। इस ज्योतिर्लोक के ऊपर जिसे देवताओं का राज्य या स्वर्गलोक भी कहते हैं, मह:, जन: तथा तप: लोक हैं और सबके ऊपर सत्य लोक है, जहाँ प्रकृति के समस्त गुणों के मुख्य निर्देशक अर्थात् विष्णु, ब्रह्मा तथा शिव निवास करते हैं। ये विष्णु क्षीरोदकशायी विष्णु कहलाते हैं और ये सभी जीवों में परमात्मा की भाँति कार्य करते हैं। कारणार्णव में असंख्य ब्रह्माण्ड तैरते रहते हैं और इनसब में भगवान् के विराट रूप का प्रतिनिधित्व, असंख्य सूर्यों, चन्द्रमाओं, देवताओं, ब्रह्माओं, विष्णुओं तथा शिवों के रूप में होता है और ये सभी भगवान् कृष्ण की अचिन्त्य शक्ति के एक अंश में स्थित हैं जैसाकि भगवद्गीता (१०.४२) में कहा गया है।
 
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