इन्द्र-आदय:—स्वर्ग के राजा इन्द्र इत्यादि देवता; बाहव:—बाँहें; आहु:—कहलाते हैं; उस्रा:—देवता; कर्णौ—कान; दिश:— चारों दिशाएँ; श्रोत्रम्—सुनने की इन्द्रियाँ; अमुष्य—भगवान् की; शब्द:—ध्वनि; नासत्य-दस्रौ—अश्विनी कुमार नामक देवता; परमस्य—परम के; नासे—नथुने; घ्राण:—सुंगधि की इन्द्रिय; अस्य—उसका; गन्ध:—सुगन्धि; मुखम्—मुँह; अग्नि:—अग्नि; इद्ध:—प्रज्ज्वलित ।.
अनुवाद
इन्द्र इत्यादि देवता उस विराट पुरुष की बाँहें हैं, दसों दिशाएँ उसके कान हैं और भौतिक ध्वनि उसकी श्रवणेन्द्रिय है। दोनों अश्विनीकुमार उसके नथने हैं तथा भौतिक सुगंध उसकी घ्राणेन्द्रिय है। उसका मुख प्रज्ज्वलित अग्नि है।
तात्पर्य
भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में दिये गये भगवान् के विराट रूप का वर्णन यहाँ पर श्रीमद्भागवत् में विस्तार से दिया गया है। भगवद्गीता (११.३०) में इस प्रकार वर्णन है, “हे विष्णु! मैं देख रहा हूँ कि आप अपने प्रज्ज्वलित मुख में सब को निगले जा रहे हैं और समूचे ब्रह्माण्ड को अपनी असह्य किरणों की लपेट में ले रहे हैं। आप समस्त जगत को झुलसाते हुए अपने को व्यक्त कर रहे हैं।” इस तरह श्रीमद्भागवत, भगवद्गीता के जिज्ञासु के लिए, स्नातकोत्तर अध्ययन का विषय है।
दोनों ही परम सत्य कृष्ण के विज्ञान हैं, अतएव ये अन्योन्याश्रित हैं।
परमेश्वर के विराट पुरुष की अवधारणा में समस्त अधिपति देवता तथा अधिशासित जीव सम्मिलित हैं। जीव का सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश भी भगवान् के शक्त्यावेशित दूत द्वारा नियन्त्रित रहता है। चूँकि भगवान् के विराट रूप में देवता भी सन्निहित रहते हैं, अतएव भगवान् की पूजा, चाहे उनके विराट भौतिक रूप में की जाय या भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में उनके शाश्वत दिव्य रूप में की जाय, वह देवताओं तथा अन्य अंशों को भी प्रसन्न करनेवाली होती है, जिस प्रकार कि वृक्ष की जड़ में पानी डालने से वृक्ष के अन्य सभी भागों को शक्ति मिलती है। फलस्वरूप यदि भौतिकतावादी व्यक्ति भगवान् के विश्व विराट रूप की पूजा करता है, तो वह सन्मार्ग पर अग्रसर होता है। मनुष्य को चाहिए कि अपनी विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए अनेक देवताओं के पास जाकर दिग्भ्रमित न हो। वास्तविक सत्ता तो साक्षात् भगवान् हैं, अन्य सभी काल्पनिक हैं क्योंकि सारी वस्तुएँ केवल भगवान् में सन्निविष्ट हैं।
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