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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  2.1.39 
स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व
आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैक: ।
तं सत्यमानन्दनिधिं भजेत
नान्यत्र सज्जेद् यत आत्मपात: ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह (परम पुरुष); सर्व-धी-वृत्ति—सभी प्रकार की बुद्धि द्वारा अनुभूति होने की विधि; अनुभूत—सावधान; सर्वे—हर एक; आत्मा—परमात्मा; यथा—जिस तरह; स्वप्न-जन—सपना देखनेवाला; ईक्षित—देखा हुआ; एक:—एक और वही; तम्—उसको; सत्यम्—परम सत्य; आनन्द-निधिम्—आनन्द का सागर; भजेत—पूजा करे; —कभी नहीं; अन्यत्र—अन्यत्र; सज्जेत्—अनुरक्त हो; यत:—जिससे; आत्म-पात:—अपना पतन ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को अपना मन भगवान् में एकाग्र करना चाहिए, क्योंकि वे ही अपने को इतने सारे रूपों में उसी तरह वितरित करते हैं, जिस तरह कि सामान्य मनुष्य स्वप्न में हजारों रूपों की सृष्टि करता है। मनुष्य को अपना मन एकमात्र सर्व आनन्दमय परम सत्य पर एकाग्र करना चाहिए अन्यथा वह पथभ्रष्ट हो जायेगा और अपने हाथों ही अपना पतन कर लेगा।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में महान् गोस्वामी श्रील शुकदेव ने भक्तियोग की ओर संकेत किया है। वे हमें बताना चाहते हैं कि हम आत्म-साक्षात्कार की अनेक शाखाओं की ओर अपना ध्यान न बाँटकर, भगवान् को ही अनुभूति, पूजा तथा भक्ति का परम लक्ष्य मानकर, उन्हीं में चित्त को एकाग्र करें। ऐसा लगता है, मानो आत्म-साक्षात्कार जीवन-संघर्ष के विरुद्ध नित्य जीवन के लिए युद्ध हो। अतएव बहिरंगा शक्ति की भ्रामक दया से योगी या भक्त को अनेक प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है, जो बड़े से बड़े योद्धा को भवबन्धन में पुन: बाँध दें। योगी को भौतिक उपलब्धियों में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त हो सकती है—यथा अणिमा या लघिमा की उपलब्धि जिससे वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और हल्का से हल्का बन सकता है, या सामान्य अर्थों में, मनुष्य सम्पत्ति तथा स्त्रियों के रूप में भौतिक वर प्राप्त कर सकता है। लेकिन ऐसे आकर्षणों के प्रति आगाह किया जाता है, क्योंकि इस प्रकार के मोहमय आनन्द में पुन: फँसने का अर्थ है आत्म-पतन तथा भौतिक जगत में अधिकाधिक बँधना। इस चेतावनी से मनुष्य को अपनी जागरूक बुद्धि का ही अनुसरण करना चाहिए।

परमेश्वर एक है, किन्तु उनके अंश अनेक हैं, अतएव वे सबके परमात्मा हैं। जब मनुष्य कोई वस्तु देखता है, तो उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि उसने इसे बाद में देखा है और भगवान् उसे पहले से देख रह हैं। कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु को पहले भगवान् द्वारा देखे बिना देख नहीं सकता। यही वेदों तथा उपनिषदों का उपदेश है। अतएव हम जो भी देखते या करते हैं, उस देखने या करने के समस्त कृत्यों के कर्ता परमात्मा भगवान् ही हैं। आत्मा तथा परमात्मा के एकसाथ एकत्व तथा भिन्न-भिन्न होने के इस सिद्धान्त को श्री चैतन्य महाप्रभु ने अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व दर्शन रूप में प्रतिपादित किया है। भगवान् के विराट रूप में प्रत्येक भौतिक वस्तु प्रकट होती है, अतएव भगवान् का यह विराट रूप समस्त चेतन तथा अचेतन का परमात्मा है। किन्तु यही विराट रूप नारायण या विष्णु की भी अभिव्यक्ति है और हम जितना ही आगे बढ़ेंगे, तो अन्ततोगत्वा हम देखेंगे कि भगवान् कृष्ण ही सभी वस्तुओं के अनन्तिम परम आत्मा हैं। निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य को या तो भगवान् कृष्ण का या उनके पूर्ण अंश नारायण का बिना किसी संकोच के पूजक बनना चाहिए, अन्य किसी का भी नहीं। वैदिक मन्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि सर्वप्रथम नारायण ने पदार्थ के ऊपर दृष्टिपात किया और इस तरह सृष्टि बनी। सृष्टि के पूर्व न तो ब्रह्मा थे, न शिव थे अन्यों की तो बात ही नहीं उठती। श्रीपाद शंकराचार्य ने इसे निस्सन्देह स्वीकार किया है कि नारायण भौतिक सृष्टि से परे हैं और अन्य सभी इसी सृष्टि के अन्तर्गत हैं। अतएव सारी सृष्टि एक ही साथ, नारायण से युक्त तथा पृथक् है और इससे भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व दर्शन की पुष्टि होती है। नारायण की चितवन शक्ति से उद्भूत होने के कारण सारी भौतिक सृष्टि उनसे अभिन्न है। किन्तु चूँकि यह उनकी बहिरंगा शक्ति (माया) का प्रभाव है और यह अन्तरंगा शक्ति (आत्म-माया) से पृथक् है, अतएव सारी भौतिक सृष्टि उनसे पृथक् भी है। इस श्लोक में स्वप्न देखने वाले व्यक्ति का उदाहरण अतीव सुन्दर है। स्वप्न देखनेवाला व्यक्ति अपने स्वप्न में अनेक वस्तुओं की सृष्टि करता रहता है। इस तरह वह स्वप्न का बद्ध दर्शक बन जाता है और उसके परिणामों से भी प्रभावित होता है। यह भौतिक सृष्टि भी भगवान् के स्वप्न जैसी सृष्टि है, किन्तु वे दिव्य परमात्मा होने के कारण, न तो स्वप्नवत् सृष्टि की प्रतिक्रियाओं (बन्धनों) से बँधते हैं, न ही प्रभावित होते हैं। वे सदैव अपने दिव्य पद पर बने रहते हैं, लेकिन वे अनिवार्यत: सब कुछ होते हैं और उनसे विलग कुछ भी नहीं होता। अतएव उनके अंश होने के कारण, मनुष्य को बिना किसी विपथन के उन्हीं पर मन केन्द्रित करना चाहिए अन्यथा मनुष्य धीरे-धीरे भौतिक सृष्टि की शक्तियों का शिकार होता जायेगा। भगवद्गीता (९.७) में इस प्रकार से पुष्टि की गई है—

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥

“हे कुन्तीपुत्र! कल्पान्त में प्रत्येक भौतिक वस्तु मेरी प्रकृति में प्रवेश करती है और दूसरे कल्प के प्रारम्भ में मैं अपनी शक्ति से पुन: सृष्टि रचता हूँ।”

किन्तु मानव जीवन तो इस सृष्टि तथा प्रलय के चक्र से बाहर निकलने का एक अवसर है। यह ऐसा साधन है, जिससे मनुष्य भगवान् की बहिरंगा शक्ति से अपना पिंड छुड़ाकर उनकी अन्तरंगा शक्ति में प्रवेश करता है।

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध के अन्तर्गत “ईश अनुभूति का प्रथम सोपान शुभारम्भ” नामक प्रथम अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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