श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 1: ईश अनुभूति का प्रथम सोपान  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  2.1.4 
देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि ।
तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
देह—शरीर; अपत्य—बच्चे; कलत्र—पत्नी; आदिषु—तथा अन्य सारे सम्बन्धों में; आत्म—निजी; सैन्येषु—सिपाहियों में; असत्सु—पतनशील; अपि—के बावजूद; तेषाम्—उन सबों का; प्रमत्त:—अत्यधिक आसक्त; निधनम्—विनाश; पश्यन्— अनुभव करके; अपि—यद्यपि; न—नहीं; पश्यति—देखते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 आत्मतत्त्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते, क्योंकि वे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यंभावी मृत्यु को नहीं देख पाते।
 
तात्पर्य
 यह भौतिक जगत मर्त्यलोक कहलाता है। जिनकी आयु लाखों वर्ष होती है, उस ब्रह्म से लेकर कुछ ही पलों तक जीवित रहने वाले जीवाणुओं तक, ये सब जीवन-संघर्ष कर रहे हैं। इस तरह यह जीवन एक प्रकार से भौतिक प्रकृति के साथ युद्ध की तरह है, जिसमें सबकी मृत्यु होनी है। मानव योनि में, जीव इस विकट संघर्ष को समझने में सक्षम होता है, लेकिन परिजनों, समाज, देश इत्यादि के प्रति अत्यधिक आसक्त रहने से वह अपनी शारीरिक शक्ति, बच्चे, पत्नी, सम्बन्धीजनों इत्यादि की सहायता से दुर्जेय भौतिक प्रकृति पर विजय पाना चाहता है। यद्यपि वह अपने विगत अनुभवों तथा पूर्ववर्ती दिवंगत वंशजों के उदाहरणों से अत्यधिक अनुभवी बन जाता है, तो भी वह यह नहीं देख पाता कि तथाकथित लडऩे वाले सैनिक, अर्थात् बच्चे, परिजन, समाज के सदस्य तथा देशवासी इस महान् संघर्ष में सभी विनाशशील हैं। मनुष्य को इस तथ्य की छान-बीन कर लेनी चाहिए कि उसका पिता या पिता का पिता पहले ही दिवंगत हो चुका है। अतएव उसकी भी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसी प्रकार उसके बच्चे भी, जो अपने बच्चों के पिता होंगे, यथासमय मर जायेंगे। भौतिक प्रकृति के साथ इस संघर्ष में कोई भी नहीं बचेगा। मानव समाज का इतिहास इसे पूर्णत: सिद्ध करता है; फिर भी मूर्ख लोग सुझाव रखते हैं कि वे भौतिक विज्ञान की सहायता से भविष्य में अनन्त काल तक जीवित रह सकेंगे। मानव समाज द्वारा प्रदर्शित ऐसा अल्पज्ञान निश्चय ही भ्रामक है और यह सब आत्मा के स्वरूप की अवहेलना करने के कारण है। इस भौतिक जगत का अस्तित्व स्वप्नतुल्य है, जो इसके प्रति हमारी आसक्ति के कारण है। अन्यथा जीवात्मा तो सदा ही भौतिक प्रकृति से भिन्न है। प्रकृति का महासागर समय की तरंगों से आन्दोलित हो रहा है और तथाकथित जीवित अवस्थाएँ फेन के बुदबुदों के सदृश हैं, जो हमारे समक्ष स्वशरीर, पत्नी, बच्चे, समाज, देश इत्यादि के रूप में प्रकट होती हैं। आत्मा के ज्ञान (आत्मतत्त्व) के अभाव में हम अज्ञान की शक्ति के शिकार बनते है और इस तरह जीवन की स्थायी परिस्थितियों की व्यर्थ खोज के पीछे मूल्यवान मानवी शक्ति बर्बाद करते हैं, जो इस जगत में असम्भव है।

हमारे मित्र, कुटुम्बी और तथाकथित पत्नी एवं बच्चे न केवल विनाशशील हैं, अपितु जगत की बाह्य चकाचौंध से मोहग्रस्त भी हैं। अतएव वे हमें बचा नहीं सकते। फिर भी हम सोचते हैं कि हम परिवार, समाज या देश के घेरे में सुरक्षित हैं।

मानव सभ्यता का सम्पूर्ण भौतिकतावादी विकास शव की सजावट जैसा है। प्रत्येक व्यक्ति शव तुल्य है, जो कुछ दिनों तक अपने पंख फडफ़ड़ाता है; फिर भी मनुष्य की सारी शक्ति इस शव को अलंकृत करने में व्यर्थ जाती है। शुकदेव गोस्वामी मोहग्रस्त मानवीय कार्यकलापों की वास्तविक स्थिति का दर्शन कराकर, मनुष्य के कर्तव्य की ओर संकेत कर रहे हैं। जो लोग आत्मतत्त्व के ज्ञान से विहीन हैं, वे दिग्भ्रमित हैं, लेकिन जो भगवद्भक्त हैं और जिन्हें दिव्य ज्ञान की पूर्ण अनुभूति है, वे मोहग्रस्त नहीं होते।

 
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