प्रायेण—मुख्यतया; मुनय:—सारे मुनि; राजन्—हे राजा; निवृत्ता:—ऊपर उठे हुए, निवृत्त; विधि—विधि-विधान; षेधत:— प्रतिबन्धों से; नैर्गुण्य-स्था:—आध्यात्मिक रूप से स्थित; रमन्ते—आनन्द लेते हैं; स्म—प्रकट रूप से; गुण-अनुकथने—महिमा का वर्णन करते हुए; हरे:—भगवान् की ।.
अनुवाद
हे राजा परीक्षित, मुख्यतया सर्वोच्च अध्यात्मवादी, जो विधि-विधानों एवं प्रतिबन्धों से ऊपर हैं, भगवान् का गुणगान करने में आनन्द का अनुभव करते हैं।
तात्पर्य
सर्वोच्च अध्यात्मवादी मुक्त जीव होता है, अतएव वह विधि-विधानों की सीमा में नहीं आता। ऐसा नवदीक्षित, जो आध्यात्मिक स्तर तक उठने का इच्छुक है, विधि-विधानों के अन्तर्गत गुरु द्वारा मार्गदर्शित होता है। उसकी तुलना ऐसे रोगी से की जा सकती है, जिसका उपचार चिकित्सा की परिधि के अन्तर्गत, विविध प्रतिबन्धों के अन्तर्गत किया जाता है। सामान्यतया मुक्तात्माएँ भी दिव्य कार्यकलापों का वर्णन करने में आनन्द लेती हैं। जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, चूँकि नारायण, हरि या भगवान् भौतिक सृष्टि के परे हैं, अत: उनके रूप तथा गुण भौतिक नहीं हैं। सर्वोच्च अध्यात्मवादी या मुक्त जीव अपने दिव्य ज्ञान के उन्नत अनुभव द्वारा उनकी अनुभूति करते हैं। अतएव वे भगवान् की लीलाओं के दिव्य गुणों के कथन में रुचि लेते हैं। भगवद्गीता (४.९) में भगवान् घोषित करते हैं कि उनका प्राकट्य तथा उनके कार्यकलाप सभी दिव्यम् अर्थात् दिव्य हैं। सामान्य व्यक्ति, माया के वशीभूत होने के कारण, यह मान लेता है कि भगवान् भी हमारी ही तरह के हैं, अतएव वह भगवान् के नाम, रूप आदि की दिव्य प्रकृति को मानने से इनकार करता है। सर्वोच्च अध्यात्मवादी किसी भी भौतिक वस्तु में रुचि नहीं रखता, अतएव भगवान् के कार्यकलापों के प्रति रुचि रखना इसका निश्चित प्रमाण है कि भगवान् इस भौतिक जगत में हम जैसे नहीं हैं। वैदिक ग्रन्थों में भी इसकी पुष्टि हुई है कि परमेश्वर एक हैं, किन्तु वे अपने अनन्य भक्तों के साथ अपनी दिव्य लीलाओं में लगे रहते हैं और उसी के साथ-साथ, बलदेव के अंश रूप में, परमात्मा की तरह, सभी जीवों के हृदय में विद्यमान रहते हैं। अतएव दिव्य अनुभूति की चरम सिद्धि भगवान् के दिव्य गुणों के श्रवण तथा अनुकथन में है, न कि निर्विशेषवादी द्वारा काम्य, भगवान् के निराकार ब्रह्म रूप में तदाकार होने में। वास्तविक दिव्य आनन्द तो दिव्य भगवान् के महिमा-गायन में है, उनके निर्विशेष स्वरूप में स्थित होने की अनुभूति में नहीं। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सर्वोच्च अध्यात्मवादी न होकर उनसे घटकर हैं और जो भगवान् के दिव्य कार्यकलापों के वर्णन में रुचि नहीं दिखाते प्रत्युत वे भगवान् के ऐसे कार्यकलापों की व्याख्या भगवान् में तदाकार होने के उद्देश्य से करते हैं।
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