द्वापर युग के अन्त में अपने पिता श्रील द्वैपायन व्यासदेव से मैंने श्रीमद्भागवत नाम के इस महान् वैदिक साहित्य के अनुपूरक ग्रंथ का अध्ययन किया, जो समस्त वेदों के तुल्य है।
तात्पर्य
श्रील शुकदेव गोस्वामी के इस कथन की उनके ही निजी उदाहरण से पुष्टि होती है कि सर्वोच्च अध्यात्मवादी ही, जो विधि-विधानों की परिधि से परे होता है, भगवान् के श्रवण तथा महिमा-गायन का आश्रय लेता है। सर्वमान्य मुक्तात्मा तथा सर्वोच्च अध्यात्मवादी होने के कारण, शुकदेव गोस्वामी को महाराज परीक्षित के अन्तिम सात दिनों में उस सभा में उपस्थित समस्त सर्वोच्च मुनियों द्वारा मान्यता दी गई। वे अपने जीवन से उदाहरण देते हैं कि वे स्वयं भगवान् के दिव्य कार्यकलापों के प्रति आकृष्ट हुए और उन्होंने अपने महान् पिता, श्रीद्वैपायन व्यासदेव, से श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया। श्रीमद्भागवत या किसी अन्य वैज्ञानिक साहित्य को अपनी बुद्धि के बल पर घर पर नहीं पढ़ा जा सकता। यद्यपि शरीर रचना या शरीर क्रिया सम्बन्धी चिकित्सा-ग्रन्थ बाजार में उपलब्ध रहते हैं, किन्तु इन पुस्तकों को घर में पढक़र कोई योग्य चिकित्सक नहीं बन सकता। उसे चिकित्सा विद्यालय में प्रवेश ले करके, विद्वान प्राचार्यों के पथ-प्रदर्शन में पुस्तकों का अध्ययन करना होता है। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत, जो भगवद्विज्ञान का स्नातकोत्तर अध्ययन है, उसे श्रील व्यासदेव जैसे सिद्ध पुरुष के चरणों में बैठकर ही सीखा जा सकता है। यद्यपि शुकदेव गोस्वामी जन्मजात मुक्तात्मा थे, किन्तु उन्हें भी अपने महान् पिता व्यासदेव से श्रीमद्भागवत का अध्ययन करना पड़ा, जिन्होंने इसका संकलन एक अन्य महात्मा, श्रीनारद मुनि, के आदेश पर किया था। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक विद्वान ब्राह्मण को व्यक्ति भागवत से श्रीमद्भागवत का अध्ययन करने के लिए आदेश दिया। श्रीमद्भागवत परम पुरुष के दिव्य नाम, रूप, गुणों, लीलाओं, पार्षद तथा विविधताओं पर आधारित है और भगवान् के अवतार, श्रील व्यासदेव, द्वारा इसका प्रवचन हुआ। चूँकि भगवान् की लीलाएँ उनके शुद्ध भक्तों के संग में सम्पन्न होती हैं फलत: इस महान् ग्रन्थ में उन ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख हुआ है क्योंकि इनका सम्बन्ध कृष्ण से है। यह ब्रह्म-सम्मितम् कहलाता है, क्योंकि यह भगवान् कृष्ण का वाणीरुप प्रतिनिधि है, जिस तरह कि भगवद्गीता भगवान् का वाणी-अवतार है क्योंकि इसका प्रवचन भगवान् से ही हुआ और श्रीमद्भागवत भगवान् का वाणी अवतार है क्योंकि इसका प्रवचन भगवान् के ही अवतार द्वारा भगवान् के कार्यकलापों के विषय में हुआ। जैसाकि इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में कहा गया है यह वैदिक कल्पवृक्ष का सार है और ब्रह्म विषय पर सर्वोच्च शोध ग्रन्थ, ब्रह्म-सूत्र, का सहज भाष्य है। व्यासदेव द्वापर युग के अन्त में सत्यवती के पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए थे। अतएव इस प्रसंग में द्वापर-आदौ का अर्थ होगा कलियुग के शुभारम्भ से ठीक पहले। श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, इस कथन का तर्क वृक्ष के ऊपरी भाग को उसका शुभारम्भ कहने की भाँति है। यद्यपि वृक्ष का आदि (शुभारम्भ) उसका मूल है, लेकिन सामान्य जन को वृक्ष का ऊपरी हिस्सा ही पहले दिखता है। इस तरह वृक्ष का अन्तिम भाग उसका आदि भाग मान लिया जाता है।
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