श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  2.10.10 
पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदासौ स विनिर्गत: ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन्नपोऽस्राक्षीच्छुचि: शुची: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
पुरुष:—परम पुरुष, परमात्मा; अण्डम्—ब्रह्माण्ड को; विनिर्भिद्य—प्रत्येक को अलग-अलग स्थापित करके; यदा—जब; असौ—वही; स:—वह (भगवान्); विनिर्गत:—बाहर निकल आया; आत्मन:—अपना; अयनम्—स्थान पर पड़े हुए; अन्विच्छन्—चाहते हुए; अप:—जल; अस्राक्षीत्—उत्पन्न किया; शुचि:—परम पवित्र; शुची:—दिव्य ।.
 
अनुवाद
 
 विभिन्न ब्रह्माण्डों को पृथक् करके विराट स्वरूप भगवान् (महाविष्णु), जो प्रथम पुरुष अवतार के प्रकट होने के स्थान कारणार्णव से बाहर आये थे, सृजित दिव्य जल (गर्भोदक) में शयन करने की इच्छा से उन विभिन्न ब्रह्माण्डों में प्रविष्ट हुए।
 
तात्पर्य
 जीवात्माओं तथा सभी प्राणियों के स्वतंत्र स्रोत, परमात्मास्वरूप परमेश्वर का विश्लेषण करने के पश्चात् श्रील शुकदेव गोस्वामी अब भगवद्भक्ति की अनिवार्यता बता रहे हैं, जो समस्त जीवात्माओं का एकमात्र धर्म है। भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके अंश और अंशांश एक दूसरे से अभिन्न हैं और इस प्रकार इनमें से प्रत्येक स्वतन्त्र हैं। इसे सिद्ध करने की दृष्टि से शुकदेव गोस्वामी (परीक्षित को दिये गये वचन के अनुसार) भौतिक सृष्टि के क्षेत्र में भी पुरुष अवतार की स्वतन्त्र सत्ता का वर्णन कर रहे हैं। भगवान् के ऐसे कार्य भी दिव्य होते हैं, अत: वे भी परमेश्वर की लीला कहलाते हैं। भक्ति के क्षेत्र में आत्म-साक्षात्कार चाहने वालों के लिए ऐसी लीलाओं का श्रवण करना अत्यन्त अनुकूल होता है। कुछ लोग यह तर्क कर सकते हैं, तो फिर क्यों न मथुरा तथा वृन्दावन में की गई भगवान् की लीलाओं का रसास्वादन किया जाय जो संसार की सभी वस्तुओं से अधिक मधुर है? श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर उत्तर देते हैं कि भगवान् की वृन्दावन की लीलाएँ सिद्ध भक्तों के आस्वादनार्थ हैं। नवदीक्षित भक्त भगवान् की ऐसी परम दिव्य लीलाओं का गलत अर्थ लगा सकते हैं, अत: इस संसार में सृष्टि, पालन तथा संहार विषयक भगवान् की लीलाएँ प्राकृत अर्थात् संसारी भक्तों के द्वारा आस्वाद्य हैं। जिस प्रकार योग-पद्धति प्रणाली उन पुरुषों के निमित्त होती है, जो देह के प्रति अत्यधिक आसक्त होते हैं इसी प्रकार भगवान् की सृष्टि तथा संहार विषयक लीलाएँ अत्यधिक आसक्त संसारी पुरुषों के लिए होती हैं। अत: ऐसे संसारी पुरुषों को विधि-निर्माता भगवान् के विषय में ज्ञान कराने के लिए शरीर तथा ब्रह्माण्ड के कार्यों को सम्मिलित कर लिया जाता है। विज्ञानी लोग भौतिक विधि के अनेक पारिभाषिक शब्दों द्वारा भौतिक कार्यों की व्याख्या करते हैं, किन्तु ये अंधे विज्ञानी विधि-निर्माता (भगवान्) को भूल जाते हैं। श्रीमद्भागवत विधि-निर्माता का संकेत करता है। मनुष्य को चाहिए कि वह मोटर या डायनैमो की यांत्रिक रचना से विस्मित न हो वरन् उस इंजीनियर को सराहे जिसने ऐसी अद्भुत काम करने वाली मशीन बनाई। एक भक्त तथा अभक्त का यही अन्तर है। भक्तगण सदैव भौतिक नियमों के निर्देशक भगवान् की प्रशंसा करते हैं। भगवद्गीता (९.१०) में भौतिक प्रकृति के विषय में भगवान् का निर्देश इस प्रकार है—

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥

“भौतिक नियमों से पूर्ण भौतिक प्रकृति मेरी विभिन्न शक्तियों में से एक है, अत: यह न तो स्वतन्त्र हैं, न निरुद्देश्य है। चूँकि मैं दिव्य रूप से सर्वशक्तिमान हूँ, अत: प्रकृति पर मेरे दृष्टि डालने से ही प्रकृति के नियम इतने अद्भुत ढंग से चल रहे हैं। इसीलिए भौतिक नियमों की क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रहती है और इस जगत का बारम्बार सृजन, पालन तथा संहार होता रहता है।”

किन्तु जो अल्पज्ञानी हैं, वे मनुष्य शरीर की रचना तथा इस ब्रह्माण्ड के भीतर भौतिक नियमों का अध्ययन करके अचम्भित होते हैं और मूर्खतावश ईश्वर के अस्तित्व को यह मानकर नकारते हैं कि भौतिक नियम स्वतन्त्र हैं और उन पर कोई पराभौतिक नियंत्रण नहीं हैं। ऐसी मूर्खता का उत्तर भगवद्गीता (९.११) में निम्न शब्दों में मिलता है—

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥

“मेरे मनुष्य रुप में अवतरित होने पर मूर्ख (मूढ़) मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।” मूढ़ लोग भगवान् के दिव्य शरीर को अपने शरीर जैसा समझते हैं, अत: वे उन भगवान् की अपार नियामक शक्ति के विषय में सोच नहीं पाते, जो भौतिक नियमों के संचालन में दृश्य नहीं होते। किन्तु जब भगवान् अपनी सगुण शक्ति से अवतरित होते हैं, तो सामान्य लोगों की आँखों से दिखते हैं। भगवान् कृष्ण अपने यावत् रूप में प्रकट हुए और उन्होंने अनेक अद्भुत कार्य किये और भगवद्गीता का सम्बन्ध ऐसे ही कार्यों तथा ज्ञान से है। फिर भी मूर्ख लोग भगवान् श्रीकृष्ण को परमेश्वर नहीं मानते। सामान्य रूप से वे भगवान् के अणु व अनन्त रूपों को मानते हैं, क्योंकि वे स्वयं अणु अथवा अनन्त नहीं हो सकते, किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि यह अणु और अनन्त रूप ही भगवान् की सर्वोच्च महिमा नहीं है। उनकी शक्ति का सबसे अद्भुत प्रदर्शन तब होता है जब अनन्त भगवान् हमारे बीच हमारी ही तरह प्रकट होते हैं। तो भी उनकी लीलाएँ साधारण मनुष्यों से पृथक् होती हैं। सात वर्ष की आयु में गोवर्धन पर्वत को उठाना तथा अपनी तरुणावस्था में सोलह हजार पत्नियों से विवाह करना—ये उनकी अपार शक्ति के कुछ उदाहरण हैं, किन्तु मूढ़ लोग इन्हें देखकर या सुनकर भी इन्हें कपोलकल्पित कह कर नकारते हैं और भगवान् को अपने समान मानते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि यद्यपि वे अपनी ही शक्ति से मानव-रूप में हैं फिर भी वे परमेश्वर हैं और परम नियामक की शक्ति से ओत-प्रोत हैं।

किन्तु जब ऐसे मूढज़न श्रीमद्भगवद्गीता अथवा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् के संदेशों को शिष्य-परम्परा द्वारा आत्मसमर्पण तथा श्रवण द्वारा प्राप्त करते हैं, तो वे भी शुद्ध भक्तों की कृपा से भक्त बन जाते हैं। इसीलिए ऐसे ही अल्पज्ञानियों के हित के लिए भगवान् की संसारी लीलाओं को भगवद्गीता या श्रीमद्भागवत में चित्रित किया गया है।

 
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