मनुष्य को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि समस्त भौतिक तत्त्व, कर्म, काल तथा गुण और इन सब को भोगने वाली जीवात्माएँ भगवत्कृपा से ही विद्यमान हैं। उनके द्वारा उपेक्षित होते ही ये सारी वस्तुओं अस्तित्वहीन हो जाती हैं।
तात्पर्य
जीवात्माएँ प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जताना चाहती हैं, अत: वे ही भौतिक तत्त्वों, काल, गुण आदि की भोक्ता हैं। भगवान् परम भोक्ता हैं और जीवात्माएँ उन्हें उनके भोग में सहायक बनने और इस प्रकार हर एक के दिव्य भोग में सम्मिलित होने के लिए हैं। भोग मेंं भोक्ता तथा भोग्य दोनों भाग लेते हैं, किन्तु माया के वशीभूत होकर जीवात्माएँ भगवान् के समान स्वयं भोक्ता बनना चाहती हैं, यद्यपि वे इसके निमित्त हैं नहीं। भगवद्गीता में जीवों अर्थात् जीवात्माओं को भगवान् की पराप्रकृति कहा गया है। विष्णु पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख है। अत: जीवात्माएँ कभी पुरुष या वास्तविक भोक्ता नहीं होतीं, अत: इस संसार में जीवात्मा द्वारा सुखभोग की इच्छा झूठी है। आध्यात्मिक जगत में जीवात्माएँ शुद्ध होती हैं, अत: वे परमेश्वर के सुख में हाथ बँटाने वाली होती हैं। भौतिक जगत में अपने कर्म के द्वारा जीवात्मा के सुखोपभोग की भावना प्राकृतिक नियमों के कारण क्रमश: क्षीण होती जाती है और माया बद्धजीवों का कान भरती रहती है कि वे भगवान् से तदाकार हों। यह माया का आखिरी जाल है। जब भगवत्कृपा से यह अन्तिम जाल भी दूर हो जाता है, तो जीवात्मा अपनी पूर्वस्थिति को प्राप्त होता है और इस प्रकार वास्तव में मुक्त हो जाता है। भगवान् भव-बन्धन से मुक्ति देने के लिए ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, कुछ काल तक पालते हैं (अपनी गणना के अनुसार एक हजार वर्षों तक, जैसाकि पिछले श्लोक में आया है) और तब अपनी ही इच्छानुसार उसका संहार कर देते हैं। अत: जीवात्माएँ भगवत्कृपा पर पूर्णत: आश्रित रहती हैं और इसीलिए जब भगवान् चाहते हैं तो वैज्ञानिक विकास द्वारा उत्पन्न तथाकथित सुखोपभोगों को मिट्टी में मिला देते हैं।
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