श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  2.10.13 
एको नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात् समुत्थित: ।
वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत् त्रिधा ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
एक:—अकेला, वह; नानात्वम्—अनेक; अन्विच्छन्—ऐसी इच्छा से; योग-तल्पात्—योगनिद्रा की शय्या से; समुत्थित:— उत्पन्न; वीर्यम्—वीर्य; हिरण्मयम्—सुनहले रंग का; देव:—देवता; मायया—माया से; व्यसृजत्—रचना की; त्रिधा—तीन भागों में ।.
 
अनुवाद
 
 योगनिद्रा की शय्या में लेटे हुए भगवान् ने एकाकी रूप में से नाना प्रकार के जीवों को प्रकट करने की इच्छा करते हुए अपनी बहिरंगा शक्ति से सुनहरे रंग का वीर्य-प्रतीक उत्पन्न किया।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता (९.७-८) में भौतिक जगत की सृष्टि तथा संहार का वर्णन इस प्रकार से हुआ है—

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥

“हे कुन्तीपुत्र! कल्प के अन्त होने पर सृजनात्मक शक्तियां अर्थात् भौतिक प्रकृति एवं भौतिक प्रकृति में संघर्ष रत सारे जीव मेरी दिव्य प्रकृति में लीन हो जाते हैं और फिर से उन्हें प्रकट करने की मेरी इच्छा करने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुन: उत्पन्न करता हूँ।”

सम्पूर्ण दृश्य जगत मेरे अधीन कार्य करता है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वत: प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अन्त में विनष्ट होता है।”

इस प्रकार ब्रह्माण्ड की सृष्टि के पूर्व भगवान् अपनी पूर्ण शक्ति (महा-समष्टि) के रूप में विद्यमान रहते हैं और अपने को अनेक करने की इच्छा से वे अपने को बहुमुखी पूर्ण शक्ति (समष्टि) में विस्तारित करते हैं। फिर वे इससे व्यष्टि रूप में अध्यात्मिक, अधिदैविक तथा अधिभौतिक आयामों में विस्तार करते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि तथा सृजन-शक्तियाँ अभिन्न होते हुए भी भिन्न-भिन्न होती हैं। चूँकि प्रत्येक प्राणी उन्हीं (महाविष्णु या महासमष्टि) से उद्भूत है, अत: विश्व की कोई शक्ति उनसे पृथक् नहीं हैं, किन्तु इन सभी विस्तारित शक्तियों के अपने-अपने विशिष्ट कार्य तथा ईश्वरनिर्मित खेल हैं, अत: वे भगवान् से भिन्न भी हैं। जीवात्माएँ भी भगवान् की ऐसी ही शक्ति (तटस्था शक्ति) हैं, अत: वे एक ही समय भगवान् से अभिन्न होते हुए भिन्न भी हैं।

अप्रकट अवस्था में जीवित शक्तियाँ भगवान् के भीतर ही सामर्थ्यमुक्त रहती हैं और जब जगत में निर्बन्ध छोड़ दिया जाता है, तो वे प्रकृति के गुणों के अधीन विभिन्न इच्छाओं के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रदर्शित होती हैं। जीवित शक्तियों के ऐसे असमान प्राकट्य जीवों की बद्ध अवस्था के सूचक हैं। लेकिन अपने सनातन प्राकट्य में मुक्त जीवात्मा अबद्ध रुप में शरणागत हो चुके होते हैं, अत: वे सृष्टि तथा संहार के अधीन नहीं आते। इस तरह योगनिद्रा में अपनी शैय्या में लेटे हुए भगवान् की चितवन से इस सृष्टि का सृजन होता है। और इस तरह सारे ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी, ब्रह्मा बारम्बार प्रकट होते और विनष्ट होते रहते हैं।

 
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