विवक्षो:—जब बोलने की आवश्यकता हुई; मुखत:—मुख से; भूम्न:—परमेश्वर की; वह्नि:—अग्नि या अग्निदेव; वाक्— शब्द; व्याहृतम्—वाणी; तयो:—दोनों के द्वारा; जले—जल में; च—फिर भी; एतस्य—इन सबका; सुचिरम्—दीर्घ काल तक; निरोध:—अवरोध; समजायत—बना रहा ।.
अनुवाद
जब परम पुरुष की बोलने की इच्छा हुई तो उनके मुख से वाणी गूँजी। फिर मुख से अधिष्ठाता देव अग्नि की उत्पत्ति हुई। किन्तु जब वे जल में शयन कर रहे थे तो ये सारे कार्य बन्द पड़े थे।
तात्पर्य
विभिन्न इन्द्रियों के क्रमिक विकास की विचित्रता की पुष्टि उनके अधिष्ठाता देवों से हो जाती है। अत: यह समझ लेना चाहिए कि इन्द्रियों के कार्य परमेश्वर की इच्छा द्वारा नियन्त्रित होते हैं। ये इन्द्रियाँ एक प्रकार से बद्धजीवों को छूट प्रदान करती हैं, जिन्हें इनका उपयोग परमेश्वर द्वारा नियुक्त अधिष्ठाता देवों के नियन्त्रण में करना होता है। जो इन विधानों का उल्लंघन करता है उसे निम्नस्तर के जीवन में गिरा कर दण्डित किया जाता है। उदाहरणार्थ, जीभ तथा इसके अधिष्ठाता देव वरुण पर विचार करें। जीभ खाने के लिए है और मनुष्य, पशु तथा पक्षी अपनी-अपनी स्वतन्त्रता के कारण अलग-अलग स्वाद रखते हैं। एक मनुष्य तथा एक शूकर के स्वाद एक-से नहीं होते। किन्तु जब विशिष्ट जीवात्मा विभिन्न गुणों के अनुसार कोई स्वाद विकसित कर लेता है, तो अधिष्ठाता देव उसे विशिष्ट प्रकार का शरीर प्रदान करता है। किन्तु यदि विवेकहीन होकर मनुष्य शूकर की भाँति स्वाद विकसित करता है, तो उसे अगले जन्म में शूकर का शरीर मिलता है। शूकर सभी प्रकार का भोजन स्वीकार करता है, यहाँ तक कि विष्ठा भी खाता है, अत: जो मनुष्य बिना बिचारे ऐसा स्वाद विकसित करता है उसे अगले जीवन में निम्न जीवन बिताने के लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसा जीवन भी भगवत्कृपा ही है, क्योंकि बद्धजीव ने जिस विशिष्ट प्रकार के भोजन का स्वाद चाहा उसे वैसा ही शरीर मिला। यदि मनुष्य को शूकर का शरीर मिले तो इसे भगवत्कृपा ही समझनी चाहिए, क्योंकि भगवान् वैसी ही सुविधा प्रदान करते हैं। मृत्यु के पश्चात् जो शरीर प्राप्त होता है, वह अन्धाधुन्ध नहीं वरन् परम नियन्ता द्वारा प्रदान किया जाता है। अत: मनुष्य को सचेत रहना चाहिए कि अगले जीवन में उसे किस प्रकार का शरीर मिलने वाला है। अविवेकपूर्ण गैरजिम्मेदार जीवन घातक होता है और सभी शास्त्रों की यही घोषणा है।
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