श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  2.10.20 
नासिके निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।
तत्र वायुर्गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षत: ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
नासिके—नथुनों में; निरभिद्येताम्—विकसित होकर; दोधूयति—तेजी से निकलती हुई; नभस्वति—श्वास; तत्र—तत्पश्चात्; वायु:—वायु; गन्ध-वह:—सुगन्धि; घ्राण:—घ्राण शक्ति; नसि—नाक में; जिघृक्षत:—सुगन्ध सूँघने की इच्छा करते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् जब परम पुरुष को सुगन्धि सूँघने की इच्छा हुई तो नथुने तथा श्वास, घ्राणेन्द्रिय तथा सुगन्धियों की उत्पत्ति हुई और सुंगधि को वहन करने वाली वायु के अधिष्ठाता देव भी प्रकट हुए।
 
तात्पर्य
 जब भगवान् को सूँघने की इच्छा हुई तो नासिका, सुगन्ध, अधिष्ठाता वायुदेव, घ्राणशक्ति इत्यादि एकसाथ प्रकट हो गये। उपनिषदों में आये इस कथन की वैदिक मन्त्रों द्वारा पुष्टि होती है कि जीवात्मा द्वारा कोई कार्य करने के पूर्व ईश्वर प्रत्येक वस्तु के लिए इच्छा प्रकट करते हैं। जीवात्मा तभी देख सकता है जब ईश्वर देख रहा हो, जीवात्मा तभी सूँघ सकता है जब ईश्वर सूँघे, इत्यादि। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवात्मा कोई भी कार्य स्वतन्त्र रूप से नहीं कर सकता। भले ही वह किसी कार्य को स्वतन्त्र रूप से करने के विषय में सोचे, किन्तु वह स्वतन्त्र रूप से कोई कार्य कर नहीं सकता। भगवत्कृपा से सोचने की स्वतन्त्रता तो है, किन्तु कार्य रूप में उसकी परिणति भगवत्कृपा से ही होती है इसीलिए यह आम कहावत है—आपन सोची होत नहिं प्रभु सोची तत्काल, सारी व्याख्या का विषय है कि जीवात्मा परतन्त्र है और परमेश्वर पूर्ण स्वतन्त्र है। जो अल्पज्ञानी पुरुष अपने को ईश्वर के समकक्ष बताते हैं उन्हें पहले अपने आपको स्वतन्त्र तथा परम सिद्ध प्रमाणित करना चाहिए। तब उन्हें ईश्वर से अपनी एकात्मकता का दावा प्रमाणित करना चाहिए।
 
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