यदात्मनि निरालोकमात्मानं च दिदृक्षत: ।
निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिश्चक्षुर्गुणग्रह: ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
यदा—जब; आत्मनि—अपने को; निरालोकम्—बिना प्रकाश के; आत्मानम्—अपना दिव्य शरीर; च—अन्य शारीरिक रूप भी; दिदृक्षत:—देखने की इच्छा की; निर्भिन्ने—प्रगट होने से; हि—क्योंकि; अक्षिणी—आँखों के; तस्य—उसका; ज्योति:— सूर्य; चक्षु:—आँखें; गुण-ग्रह:—देखने की शक्ति ।.
अनुवाद
इस प्रकार जब सारी वस्तुएँ अन्धकार में विद्यमान थीं तो भगवान् की अपने आपको तथा जो कुछ उन्होंने रचा था, उन सबको देखने की इच्छा हुई। तब आँखें, प्रकाशमान सूर्यदेव, देखने की शक्ति तथा दिखने वाली वस्तु—ये सभी प्रकट हुईं।
तात्पर्य
यह ब्रह्माण्ड यथार्थ में घना अंधकार है और इसलिए समग्र सृष्टि तमस् या अंधकार कहलाती है। रात्रि ही ब्रह्माण्ड का वास्तविक स्वरूप है, क्योंकि तब मनुष्य को कुछ भी नहीं दिखता, यहाँ तक कि वह स्वयं को भी नहीं देख सकता। भगवान् ने अपनी अहैतुकी कृपा से सर्वप्रथम अपने आपको तथा अपनी सारी सृष्टि को देखना चाहा। इस तरह सूर्य प्रकट हुआ; समस्त जीवों में देखने की शक्ति उत्पन्न हुई और दिखनेवाली वस्तुएँ भी प्रकट हुईं। इसका अर्थ यह हुआ कि सूर्य की सृष्टि के बाद ही सारा व्यवहार-जगत दिखाई पडऩे लगा।
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