बोध्यमानस्य ऋषिभिरात्मनस्तज्जिघृक्षत: ।
कर्णौ च निरभिद्येतां दिश: श्रोत्रं गुणग्रह: ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
बोध्यमानस्य—जानने की इच्छा से; ऋषिभि:—ऋषियों द्वारा; आत्मन:—परमेश्वर का; तत्—वह; जिघृक्षत:—ग्रहण करने की इच्छा होने पर; कर्णौ—दो कान; च—भी; निरभिद्येताम्—प्रकट हुए; दिश:—दिशा अथवा वायु देवता; श्रोत्रम्—सुनने की शक्ति; गुण-ग्रह:—तथा सुनने की वस्तुएँ ।.
अनुवाद
महान् ऋषियों द्वारा जानने की इच्छा विकसित होने से कान, सुनने की शक्ति, सुनने के अधिष्ठाता देव तथा सुनने की वस्तुएँ प्रकट हुईं। ऋषिगण आत्मा के विषय में सुनना चाह रहे थे।
तात्पर्य
जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है ज्ञान के द्वारा प्रत्येक वस्तु के आश्रय रूप परमेश्वर के विषय में जानने का प्रयत्न करना चाहिए। ज्ञान का अर्थ केवल उन प्राकृतिक नियमों का ज्ञान नहीं है, जो भगवान् के निर्देश से कार्य कर रही हैं। विज्ञानी प्रकृति में कार्यशील भौतिक नियमों के विषय में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। वे अपने से दूर अन्य ग्रहों में घटित होने वाली घटनाओं के विषय में रेडियो तथा टेलीविजन द्वारा सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं, किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि भगवान् ने सुनने की शक्ति अथवा सुनने के उपकरण उन्हें अपने विषय में या भगवान् के विषय में सुनने के लिए ही प्रदान किये थे। दुर्भाग्यवश सुनने की शक्ति का गलत प्रयोग सांसारिक विषयों सम्बन्धी शब्दों के सुनने में किया जाता है। महान् ऋषिगण वैदिक ज्ञान के द्वारा केवल ईश्वर के विषय में सुनने की इच्छा रखते थे। श्रवण द्वारा ज्ञान ग्रहण करने की शुरुआत यही है।
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