वस्तुन:—समस्त पदार्थ की; मृदु—कोमलता; काठिन्य—कठोरता; लघु—हल्कापन; गुरु—भारीपन; ओष्ण—उष्णता; शीतताम्—शीतलता; जिघृक्षत:—देखने की इच्छा से; त्वक्—स्पर्श; निर्भिन्ना—वितरित; तस्याम्—त्वचा में; रोम—रोएँ; मही-रुहा:—तथा वृक्ष, अधिष्ठाता देव; तत्र—वहाँ; च—भी; अन्त:—भीतर; बहि:—बाहर; वात: त्वचा—स्पर्श इन्द्रिय या चमड़ी; लब्ध—देखकर; गुण:—स्पर्शेन्द्रिय का विषय; वृत:—उत्पन्न ।.
अनुवाद
जब पदार्थ के भौतिक गुणों—यथा कोमलता, कठोरता, उष्णता, शीतलता, हल्कापन तथा भारीपन—को देखने की इच्छा हुई तो अनुभूति की पृष्ठभूमि त्वचा, त्वचा के छिद्र, रोम तथा उनके अधिष्ठाता देवों (वृक्षों) की उत्पत्ति हुई। त्वचा के भीतर तथा बाहर वायु की खोल है, जिसके माध्यम से स्पर्श का अनुभव होने लगा।
तात्पर्य
पदार्थ की कोमलता जैसे भौतिक गुण ऐन्द्रिय अनुभूति के विषय हैं, अत: भौतिक ज्ञान स्पर्श का विषय है। पदार्थ का ताप हाथ से स्पर्श करके जाना जा सकता है किसी वस्तु का भार उसको हाथ में उठाकर ज्ञात किया जा सकता है, जिससे उसके भारीपन या हल्केपन का अनुमान लग सकता है। शरीर की त्वचा, छिद्र (रोमकूप) तथा रोम—ये सब स्पर्श के अन्योन्याश्रित हैं। त्वचा के बाहर तथा भीतर बहने वाली वायु भी स्पर्शेन्द्रिय का एक माध्यम है। यह स्पर्शेन्द्रिय ज्ञान का स्रोत भी है, इसीलिए यह सुझाया जाता है कि जैसा ऊपर वर्णित है, भौतिक या शारीरिक ज्ञान आत्मज्ञान के अधीन है। आत्मज्ञान बढक़र व्यावहारिक ज्ञान हो सकता है, किन्तु भौतिक ज्ञान कभी आत्मज्ञान नहीं बन सकता।
किन्तु शरीर के रोमों तथा पृथ्वी के शरीर पर उगी वनस्पति में निकट का सम्बन्ध है। जैसाकि तृतीय स्कंध में कहा गया है वनस्पतियाँ त्वचा के लिए पोषक हैं, भोजन के रूप में तथा औषधि के रूप में भी—त्वचमस्य विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यम् ओषधी:।
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