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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  2.10.24 
हस्तौ रुरुहतुस्तस्य नानाकर्मचिकीर्षया ।
तयोस्तु बलवानिन्द्र आदानमुभयाश्रयम् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
हस्तौ—दो हाथ; रुरुहतु:—प्रकट हुए; तस्य—उसके; नाना—विविध; कर्म—कर्म; चिकीर्षया—इच्छा से; तयो:—उनका; तु—किन्तु; बलवान्—शक्ति देने के लिये; इन्द्र:—स्वर्ग का देवता; आदानम्—हाथ के कार्य; उभय-आश्रयम्—देवता तथा हाथ दोनों पर आश्रित ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् जब परम पुरुष को नाना प्रकार के कार्य करने की इच्छा हुई तो दो हाथ तथा उनकी नियामक शक्ति एवं स्वर्ग के देवता इन्द्र के साथ ही दोनों हाथों तथा देवता पर आश्रित कार्य भी प्रकट हुए।
 
तात्पर्य
 हम यह देख सकते हैं कि जीवात्मा की इन्द्रियाँ किसी भी अवस्था में स्वतन्त्र नहीं रहतीं। भगवान् को इन्द्रियों का स्वामी (हृषीकेश) कहा गया है। इस प्रकार जीवात्माओं की इन्द्रियाँ भगवान् की इच्छा से प्रकट होती हैं और प्रत्येक अंग किसी न किसी विशेष देवता द्वारा नियन्त्रित होता है। अत: कोई भी अपने को इन्द्रियों का स्वामी नहीं कह सकता। जीवात्मा इन्द्रियों द्वारा नियन्त्रित है, इन्द्रियाँ देवताओं द्वारा नियन्त्रित हैं और देवता परमेश्वर के दास होते हैं। सृष्टि की यही व्यवस्था है। अन्तत: सब कुछ परमेश्वर द्वारा नियन्त्रित होता है और प्रकृति अथवा जीवात्मा को किसी प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है। जो मोहग्रस्त जीवात्मा अपने को अपनी इन्द्रियों का स्वामी होने का दावा करता है, वह भगवान् की बहिरंगा शक्ति के चंगुल में रहता है। जब तक जीवात्मा को अपने क्षुद्र अस्तित्व के घमंड में रहता है तब तक उसे भगवान् की बहिरंगा शक्ति के कठोर नियन्त्रण में समझना चाहिए और माया के चंगुल से मुक्ति पाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, चाहे वह अपने को कितना ही मुक्त जीव क्यों न घोषित करता रहे।
 
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