श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  2.10.25 
गतिं जिगीषत: पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।
पद्‍भ्यां यज्ञ: स्वयं हव्यं कर्मभि: क्रियते नृभि: ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
गतिम्—चाल; जिगीषत:—इच्छा करने पर; पादौ—दो पाँव; रुरुहाते—प्रकट होकर; अभिकामिकाम्—सार्थक; पद्भ्याम्— पाँवों से; यज्ञ:—भगवान् विष्णु; स्वयम्—स्वयं; हव्यम्—कर्तव्य; कर्मभि:—अपने कर्म से; क्रियते—कराता है; नृभि:— विभिन्न मनुष्यों द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् गति (इधर उधर चलना) को नियन्त्रित करने की इच्छा से उनकी टाँगें प्रकट हुईं और टाँगों से उनके अधिष्ठाता देव विष्णु की उत्पत्ति हुई। इस कार्य की स्वयं विष्णु द्वारा निगरानी करने से सभी प्रकार के मनुष्य अपने-अपने निर्धारित यज्ञों (कार्यों) में संलग्न हैं।
 
तात्पर्य
 प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य विशेष में संलग्न रहता है और जब वह इधर-उधर जाता है, तो ये कार्य प्रकट होते हैं। संसार के बड़े-बड़े शहरों में यह सुस्पष्ट दिखता है, लोग इन शहरों में एक स्थान से दूसरे स्थान को बड़े-बड़े कार्य लेकर घूमते हैं। यह गतिशीलता बड़े-बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं होती, यह शहरों से बाहर भी विभिन्न वाहनों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक या एक शहर से दूसरे शहर तक देखी जाती है। लोग व्यापार की सफलता हेतु सडक़ों पर कारों तथा रेलों द्वारा चलते हैं और पृथ्वी के भीतर भूमिगत रेलों द्वारा तथा आकाश में वायुयानों द्वारा यात्रा करते हैं। किन्तु इन समस्त गतियों का मूल उद्देश्य सुखी जीवन के लिए धन अर्जित करना होता है। इस सुखी जीवन के लिए सारे विज्ञानी, कलाकार, इंजीनियर, टेक्नीशियन मानव-क्रियाशीलता की विभिन्न शाखाओं में लगे रहते हैं। किन्तु वे यह नहीं जानते कि मानव जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यों को किस प्रकार सार्थक बनाया जाए। इस रहस्य से अनजान होने से उनके सारे कार्य अनियन्त्रित इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से किये जाते हैं, अत: वे ऐसा करके अनजाने ही अन्धकार के गहन क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं।

भगवान् की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित होने से वे परम भगवान् विष्णु को पूरी तरह भूल चुके हैं और यह मान बैठते हैं कि यह जीवन जैसाकि आजकल भौतिक प्रकृति के अन्तर्गत प्रदर्शित होता है, अधिकाधिक इन्द्रिय-भोग के लिए है। किन्तु ऐसी गलत देहात्मबुद्धि से वांछित मन:शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती, अत: प्रकृति के समस्त साधनों का उपयोग करते हुए ज्ञान में वृद्धि करके भी इस भौतिक सभ्यता में कोई सुखी नहीं रहता। रहस्य यह है कि उन्हें विश्वशान्ति के लिए कदम-कदम पर यज्ञ करने का प्रयास करना चाहिए। भगवद्गीता (१८.४५-४६) में भी इसी रहस्य का उपदेश दिया गया है—

स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।

स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: ॥

भगवान् ने अर्जुन से कहा, “अब इसके तत्त्व को मुझसे सुनो कि अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य किस प्रकार संसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। परमेश्वर की पूजा द्वारा तथा जिस परम भगवान् विष्णु में यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है और जिसके नियंत्रण में प्रत्येक जीवात्मा अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अपनी वांछित सुविधाएँ प्राप्त करता है, उसके लिए यज्ञ करके मनुष्य जीवन की परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है।”

जीवन में विभिन्न प्रकार के लगावों का होना हानिकर नहीं है, क्योंकि विभिन्न कार्यों द्वारा अपने जीवन की योजना बनाने के लिए मनुष्य कुछ अनुपात में स्वतन्त्र है, किन्तु उसे यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि इस जीवन में वह पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं है। मनुष्य निश्चित रूप से परमेश्वर तथा उनके अधीन माध्यमों के वश में होता है। यह जानते हुए उसे नियमपूर्वक अपने कार्य तथा श्रम के फलस्वरूप भगवान् विष्णु की प्रेमाभक्ति में दक्ष अधिकारी विद्वानों द्वारा बताई गई विधि से भगवान् की सेवा करनी चाहिए। ऐसे कार्य करने के लिए शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग टाँगें होती है, क्योंकि इनके बिना एक स्थान से दूसरे स्थान को जाया नहीं जा सकता, अत: भगवान् मनुष्यों की टाँगों पर विशेष नियन्त्रण रखते हैं, क्योंकि ये यज्ञ करने के निमित्त बने हैं।

 
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