श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  2.10.26 
निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्दामृतार्थिन: ।
उपस्थ आसीत् कामानां प्रियं तदुभयाश्रयम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
निरभिद्यत—बाहर आया; शिश्न:—पुरुष का लिंग; वै—निश्चय ही; प्रजा-आनन्द—काम-रस; अमृत-अर्थिन:—अमृत को चखने की इच्छा रखने वाला; उपस्थ:—जननेन्द्रियाँ; आसीत्—संसार में आई; कामानाम्—विषय सुख का; प्रियम्—अत्यन्त प्रिय; तत्—वह; उभय-आश्रयम्—दोनों का आश्रय ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् काम-सुख, सन्तानोत्पत्ति तथा स्वर्गिक अमृत सुख के आस्वादन के लिए भगवान् ने जननेन्द्रियाँ उत्पन्न कीं। इस प्रकार जननेन्द्रिय तथा उसके अधिष्ठाता देव प्रजापति उत्पन्न हुए। काम-सुख की वस्तु तथा अधिष्ठाता देव भगवान् की जननेन्द्रियों के अधीन रहते हैं।
 
तात्पर्य
 बद्धजीवों के लिए काम-सुख स्वर्गिक आनन्द प्रदान करने वाला है और यह सुख जननेन्द्रियों द्वारा आस्वाद्य है। स्त्री काम-सुख का माध्यम है तथा काम-सुख की ऐन्द्रिक अनुभूति एवं स्त्री ये दोनों ही प्रजापति द्वारा नियन्त्रित हैं, जो स्वयं भगवान् के जननेन्द्रिय के अधीन है। निर्विशेषवादियों को चाहिए कि वे इस श्लोक से सीखें कि भगवान् निराकार नहीं हैं, क्योंकि उनके जननेन्द्रियाँ होती हैं जिन पर काम-सुख की सारी वस्तुएँ आश्रित हैं। यदि संभोग से स्वर्गिक अमृत की अनुभूति न होती तो संतान के पालन-पोषण की बला कोई अपने सिर न लेता। यह संसार बद्धजीवों को पुनर्यौवन प्राप्ति का अवसर प्रदान करता है, जिससे वे भगवान् के धाम वापस जा सकें, फलत: सृष्टि के उद्देश्य को बनाए रखने के लिए जीवों की उत्पत्ति अनिवार्य है। इस कार्य में काम-सुख प्रेरक बनता है, अत: मनुष्य चाहे तो इस सुख के बीच भगवान् की भी सेवा करता रह सकता है। यह सेवा तभी सार्थक होती है जब काम-सुख से उत्पन्न सन्तान भगवत्-चेतना में समुचित शिक्षा प्राप्त करे। भौतिक सृष्टि का एकमात्र उद्देश्य जीवों की सुप्त भगवत्-चेतना को जागृत करना है। मनुष्य शरीर को छोडक़र अन्य किसी भी जीव मेंं काम-सुख भगवान् के सेवा भाव से प्रेरित नहीं होता। किन्तु मनुष्य रूप में बद्धजीव मोक्ष प्राप्ति के लिए उपयुक्त सन्तानों को भगवत्-चेतना की ओर अभिमुख कर सके तो चाहे तो सैकड़ों सन्तानें उत्पन्न करके वह अपार इन्द्रियसुख द्वारा दिव्य सुख लूट सकता है। अन्यथा सन्तानें उत्पन्न करना शूकरों जैसा कार्य है; अपितु शूकर मनुष्य से बढक़र निपुण है, क्योंकि वह एक ही बार में दर्जनों बच्चे पैदा करता है, जबकि मनुष्य एक बार में केवल एक सन्तान उत्पन्न कर सकता है। अत: मनुष्य को स्मरण रखना चाहिए कि जननेन्द्रियाँ, काम-सुख, स्त्री तथा सन्तान—ये सब भगवान् की सेवा से सम्बन्धित हों और जो भगवान् के साथ अपने सेवा सम्बन्ध को भूल जाता है, वह प्रकृति नियमों के द्वारा तीन प्रकार के तापों से पीडि़त होता रहता है। कुत्ते को भी विषय-भोग का अनुभव होता है, किन्तु उसमें ईश्वर-चेतना का भाव नहीं उठता। मानव जीवन ईश्वर-चेतना का अनुभव होने से कुत्ते से भिन्न है।
 
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