श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  2.10.27 
उत्सिसृक्षोर्धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम् ।
तत: पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रय: ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
उत्सिसृक्षो:—मल त्याग की इच्छा से; धातु-मलम्—खाद्य पदार्थों का मल; निरभिद्यत—प्रकट हुआ; वै—निश्चय ही; गुदम्— गुदा द्वार; तत:—तत्पश्चात्; पायु:—विसर्जन इन्द्रिय; तत:—तत्पश्चात्; मित्र:—अधिष्ठाता देवता; उत्सर्ग:—बाहर निकलने वाली वस्तु; उभय—दोनों; आश्रय:—शरण ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् जब उन्हें खाये हुए भोजन के मल त्याग की इच्छा हुई तो गुदा द्वार और फिर पायु- इन्द्रिय और उनके अधिष्ठातादेव मित्र विकसित हुए। पायु इन्द्रिय तथा उत्सर्जित पदार्थ ये दोनों अधिष्ठाता देव के आश्रय में रहते हैं।
 
तात्पर्य
 जहाँ मलत्याग करते हुए मल पर भी नियन्त्रण होता हो वहाँ जीवात्मा अपने को स्वतन्त्र होने का दावा कैसे कर सकता है?
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥