श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  2.10.28 
आसिसृप्सो: पुर: पुर्या नाभिद्वारमपानत: ।
तत्रापानस्ततो मृत्यु: पृथक्त्वमुभयाश्रयम् ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
आसिसृप्सो:—सर्वत्र जाने की इच्छा से; पुर:—विभिन्न शरीरों में; पुर्या:—एक शरीर से; नाभि-द्वारम्—उदर के छिद्र या नाभि; अपानत:—प्रकट हुआ; तत्र—तत्पश्चात्; अपान:—प्राण का रुकना; तत:—तत्पश्चात्; मृत्यु:—मृत्यु; पृथक्त्वम्—पृथक् रूप से; उभय—दोनों; आश्रयम्—शरण ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् जब उन्हें एक शरीर से दूसरे में जाने की इच्छा हुई तो नाभि तथा अपानवायु एवं मृत्यु की एकसाथ सृष्टि हुई। मृत्यु तथा अपानवायु दोनों का ही आश्रय नाभि है।
 
तात्पर्य
 प्राणवायु जीवनदाता है और अपानवायु प्राण को रुद्ध करता है। इन दोनों के कम्पन नाभि से उत्पन्न होते हैं। यह नाभि एक शरीर से दूसरे शरीर को जोडऩे वाली गाँठ है। ब्रह्माजी गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से पृथक् शरीर के रूप में प्रकट हुए और यही नियम सामान्य शरीर के जन्म में भी लागू होता है। शिशु का शरीर माता के शरीर से विकसित होता है और जब शिशु माता के शरीर से विलग होता है, तो नाभि-ग्रन्थि (नारा) काटकर उसे अलग (पृथक्) किया जाता है। इसी विधि से परमेश्वर ने अपने आपको नाना रूपों में पृथक् किया। अत: जीवात्माएँ भिन्न अंश हैं और उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥