निदिध्यासोरात्ममायां हृदयं निरभिद्यत ।
ततो मनश्चन्द्र इति सङ्कल्प: काम एव च ॥ ३० ॥
शब्दार्थ
निदिध्यासो:—जानने का इच्छुक; आत्म-मायाम्—अपनी शक्ति को; हृदयम्—मन का स्थान; निरभिद्यत—प्रकट हुआ; तत:— तत्पश्चात्; मन:—मन; चन्द्र:—मन का अधिष्ठाता देव, चन्द्रमा; इति—इस प्रकार; सङ्कल्प:—दृढ़ निश्चय; काम:—इच्छा; एव— भी; च—भी ।.
अनुवाद
जब उन्हें अपनी शक्ति के कार्यकलापों के विषय में सोचने की इच्छा हुई तो हृदय (मन का स्थान), मन, चन्द्रमा, संकल्प तथा सारी इच्छा का उदय हुआ।
तात्पर्य
प्रत्येक जीव का हृदय पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अंश-रूप, परमात्मा का निवास स्थान है। उसकी उपस्थिति के बिना जीवात्मा अपने पूर्वकर्मों के अनुसार कार्य करने की शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जीवात्मा इस संसार में बद्ध हैं और अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इस सृष्टि में प्रकट होते हैं और इनमें से प्रत्येक को परमात्मा के निर्देशन के अन्तर्गत भौतिक शक्ति द्वारा आवश्यक भौतिक शरीर प्राप्त होता है। इसकी व्याख्या भगवद्गीता (९.१०) में की गई है। अत: जब परमात्मा बद्धजीव के हृदय में स्थित हो जाता है, तो बद्धजीव में मन उत्पन्न होता है और वह अपने कार्य के प्रति उसी प्रकार सचेष्ट हो उठता है, जिस प्रकार नींद से जगने पर मनुष्य को अपने कार्य का भान होता है। अत: जीवात्मा में भौतिक मन तभी उत्पन्न होता है जब परमात्मा हृदय में बसता है। इसके बाद मन, इसका अधिष्ठाता देव (चन्द्रमा) और फिर मन के कार्य (सोचना, अनुभव करना तथा इच्छा करना) उत्पन्न होते हैं। मन के कार्य हृदय के प्रकट हुए बिना प्रारम्भ नहीं हो सकते और हृदय तभी प्रकट होता है जब भगवान् भौतिक सृष्टि के कार्यकलाप देखने की इच्छा करते हैं।
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