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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  2.10.33 
एतद्भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया ।
मह्यादिभिश्चावरणैरष्टभिर्बहिरावृतम् ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
एतत्—ये सब; भगवत:—भगवान् के; रूपम्—रूप; स्थूलम्—स्थूल; ते—तुमको; व्याहृतम्—बतलाया गया; मया—मेरे द्वारा; मही—लोक; आदिभि:—इत्यादि; —निरन्तर; अवरणै:—आवरणों से; अष्टभि:—आठ; बहि:—बाह्य; आवृतम्— ढका हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह भगवान् का बाह्य रूप अन्य लोकों की ही तरह स्थूल रूपों से घिरा हुआ है, जिनका वर्णन मैं तुमसे पहले ही कर चुका हूँ।
 
तात्पर्य
 जैसाकि भगवद्गीता (७.४) में कहा गया है, भगवान् की वियुक्त भौतिक शक्ति आठ प्रकार के भौतिक आवरणों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार—से घिरी है। ये सारे आवरण श्रीभगवान् की बाह्यशक्ति के रूप में उद्भूत हैं। ये सूर्य के चारों ओर बादलों के आवरण तुल्य हैं। यद्यपि बादल सूर्य के ही द्वारा सृजित है, किन्तु वास्तव में आँखों के सामने इसके आने से सूर्य नहीं दिखता। सूर्य बादलों से नहीं ढका जा सकता, क्योंकि बादल आकाश में कुछ सौ मीलों तक ही फैले रह सकते हैं, किन्तु सूर्य लाखों मील से भी अधिक विशाल है। अत: सौ मील का आवरण लाखों मील को नहीं ढक सकता। अतएव भगवान् की ही कोई एक शक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को आच्छादित नहीं कर सकती। किन्तु ये शक्तियाँ भगवान् द्वारा उन बद्धजीवों की आँखें बन्द करने के लिए हैं, जो प्रकृति पर अपना अधिकार जताना चाहते हैं। वास्तव में बद्धजीव पदार्थ के मोहजन्य बादल से आच्छादित रहते हैं और यह भगवान् के ऊपर है कि वे उन्हें दिखें या नहीं। चूँकि बद्धजीवों के दिव्य दृष्टि नहीं होती और वे भगवान् को देख नहीं सकते, अत: वे भगवान् के अस्तित्व तथा उनके दिव्य रूप को नकारते हैं। अल्पज्ञानी पुरुष विराट भौतिक रूप का आवरण स्वीकार कर लेते हैं। यह कैसे होता है इसकी व्याख्या अगले श्लोक में की गई है।
 
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