जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, निर्विशेषवादी भगवान् को दो भिन्न विधियों से मानते हैं। एक ओर वे विश्वरूप भगवान् की पूजा करते हैं और दूसरी ओर वे भगवान् के अव्यक्त, अप्रकट सूक्ष्म रूप का चिन्तन करते हैं। “सर्वेश्वरवाद” तथा “एकेश्वरवाद” के सिद्धान्त क्रमश: भगवान् के स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों के लिए व्यवहृत हैं, किन्तु भगवद्भक्त इन दोनों सिद्धान्तों का अस्वीकार करते हैं, क्योंकि उन्हें वास्तविक स्थिती का बोध होता है। इसका स्पष्ट उल्लेख भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय (११.४५) में हुआ है जहाँ अर्जुन द्वारा परम भगवान् श्रीकृष्ण के विश्वरूप का अनुभव अंकित है— अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥
भगवान् के शुद्ध भक्त के रूप में अर्जुन ने इसके पूर्व कभी भी भगवान् के विश्वरूप को नहीं देखा था, किन्तु जब उसने उसे देखा तो उसकी उत्सुकता शान्त हो गई। लेकिन वह एक शुद्ध भक्त के रूप में अपने लगाव के कारण भगवान् के इस प्रकार के रूप को देखकर प्रसन्न नहीं हुआ। वह भगवान् के विराट रूप को देखकर भयभीत हुआ, अत: उसने भगवान् से अपना चतुर्भुज नारायण रुप या कृष्ण रूप धारण करने के लिए प्रार्थना की, क्योंकि वह उसी से प्रसन्न हो सकता था। निस्सन्देह भगवान् अपने को अनेक रूपों में प्रकट करने की परम शक्ति से पूर्ण हैं, किन्तु भक्तजन तो भगवान् के धाम त्रिपाद विभूति में शाश्वत दिखाई पडऩे वाले रूप में रुचि रखते हैं। त्रिपाद विभूति धाम में भगवान दो रूपों में प्रकट होते हैं—चतुर्भुज रूप अथवा दो भुजाओं वाला रूप। किन्तु भौतिक विश्व में उनका जो विश्वरूप प्रकट है उसमें अनेक भुजाएँ होती हैं और अनेक आयाम होते हैं और सभी कुछ असीम आकार के होते हैं। भगवान् के शुद्ध भक्त वैकुण्ठ रूप में नारायण या श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। कभी-कभी वे ही वैकुण्ठ रूप इस भौतिक जगत में उन्हीं की कृपा से श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीनृसिंहदेव के रूप में प्रकट होते हैं और इसलिए भक्तजन इनकी भी पूजा करते हैं। सामान्यतया भौतिक जगत में जो भौतिक रूप प्रकट होते हैं, वे वैकुण्ठ लोक में नहीं पाये जाते, अत: शुद्ध भक्त इन रूपों को नहीं मानते। भक्तजन प्रारम्भ से ही वैकुण्ठ लोक में स्थित भगवान् के शाश्वत रूपों को पूजते आ रहे हैं। अभक्त निर्विशेषवादी भगवान् के भौतिक रूपों की कल्पना करते हैं और अन्तत: भगवान् की निर्विशेष ब्रह्मज्योति में लीन होते हैं, किन्तु भगवान् के भक्त तो प्रारम्भिक तथा मुक्ति की अवस्था इन दोनों ही स्थितियों में सदैव पूजा करने वाले हैं। शुद्ध भक्त की पूजा कभी रुकती नहीं, किन्तु निर्विशेषवादी की पूजा ब्रह्मज्योति में उसके लीन होने पर और मुक्ति मिलने पर रुक जाती है। इसीलिए शुद्ध भक्तों को विपश्चित अर्थात् विद्वान कहा गया है, जिन्हें भगवान् का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है।