जब भी भौतिक सृष्टि करने की आवश्यकता होती है, तो श्रीभगवान् सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए इस संसार में विविध रूप धारण करते हैं। मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि वह उनकी लीलाओं को सही-सही जान सके और यह न सोच बैठे कि वे भौतिक प्रकृति द्वारा निर्मित सांसारिक रूप धारण करके इस जगत में अवतरित होते हैं। भौतिक प्रकृति से गृहीत कोई भी रूप इस संसार में किए गए प्रत्येक कार्य से अनुराग रखता है। जो बद्धजीव किसी कार्य के प्रयोजन से भौतिक रूप ग्रहण करता है उस पर भौतिक नियम लागू होते हैं। किन्तु इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि यद्यपि भगवान् के रूप तथा कार्य बद्धजीव जैसे होते हैं, किन्तु वे अलौकिक होते हैं और बद्धजीव के लिए असम्भव होते हैं। वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ऐसे कार्यों से सदैव अप्रभावित रहते हैं। भगवद्गीता (४.१४) में भगवान् कहते हैं—
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
भगवान् कभी न तो उन कर्मों द्वारा बँधते हैं, जिन्हें वे अपने विभिन्न अवतारों के द्वारा सम्पन्न करते हैं, न ही उन्हें सकाम कर्म द्वारा सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा रहती है। भगवान् धन, बल, यश, सौंदर्य, ज्ञान तथा त्याग की विविध शक्तियों से पूरित हैं, अत: बद्धजीव के समान उन्हें परिश्रम करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। अत: ऐसा बुद्धिमान पुरुष जो भगवान् के दिव्य कार्यों तथा बद्धजीवों के कार्यों में भेद कर सकता है, वह भी कर्मफल में नहीं बँधता। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूप में भगवान् प्रकृति के त्रिगुणों का सञ्चालन करने वाले हैं। विष्णु से ब्रह्मा और ब्रह्मा से शिव उत्पन्न हैं। कभी-कभी ब्रह्मा विष्णु के पृथक् अंश होते हैं, तो कभी ब्रह्मा स्वयं विष्णु होते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा ब्रह्माण्ड भर की समस्त योनियों को उत्पन्न करते हैं, जिसका अर्थ होता है कि भगवान् सम्पूर्ण सृष्टि को या तो स्वयं उत्पन्न करते हैं या फिर अपने अधिकृत सहायक के माध्यम से करते हैं।