पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु जीवों के विभिन्न समाजों में उनको माया के चंगुल से उबारने हेतु अवतरित होते हैं और भगवान् के ऐसे कार्यकलाप केवल मानव समाज तक ही सीमित नहीं रहते। वे एक मछली, शूकर, वृक्ष तथा अन्य अनेक रूपों में अवतरित होते हैं, किन्तु अल्पज्ञानी पुरुष भगवान् को न जानने के कारण उनका उपहास करते हैं चाहे वे मानव समाज में मनुष्य रूप में ही क्यों न हों। अत: भगवान् भगवद्गीता (९.११) में कहते हैं— अवजान्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
जैसाकि हम पिछले श्लोकों में बता चुके हैं, निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान् कभी भी भौतिक सृष्टि की उत्पत्ति नहीं होते। उनकी दिव्य स्थिति सदैव अपरिवर्तित रहती है। वे ज्ञान तथा आनन्द के शाश्वत रूप हैं और अपनी विभिन्न शक्तियों द्वारा अपनी सर्वशक्तिमय इच्छा की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार वे अपने किसी कार्य के फल को नहीं भोगते। वे कार्य-कारण के ऐसी सभी अवधारणों से परे हैं। यदि वे जगत मेंं दिखते भी हैं, तो यह प्रदर्शन केवल अन्तरंगा शक्तियों का होता है, क्योंकि वे इस भौतिक जगत की अच्छी-बुरी अवधारणाओं से ऊपर हैं। इस जगत में मछली या शूकर को मनुष्य से निम्न माना जा सकता है, किन्तु जब भगवान् मछली या शूकर रूप में प्रकट होते हैं, तो वे भौतिक दृष्टि से इनमेंं से एक भी नहीं होते। यह उनकी अहैतुकी कृपा है कि वे प्रत्येक समाज तथा योनि में प्रकट होते हैं, किन्तु उन्हें उनमें से एक कभी नहीं माना जा सकता। भौतिक संसार की अवधारणाएँ जैसे अच्छे तथा बुरे, निम्न तथा उच्च, महत्त्वपूर्ण तथा नगण्य जैसी धारणाएँ भौतिक शक्ति के अनुमान होते हैं और परमेश्वर ऐसी सभी अवधारणाओं से परे होते हैं। परम भावम् शब्द अर्थात् दिव्य स्वभाव की तुलना कभी भी भौतिक धारणा से नहीं हो सकती। मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि भगवान् की शक्तियाँ सदैव एकसी रहती हैं, कभी घटती नहीं, क्योंकि भगवान् निम्न पशुओं का रूप धारण करते रहते हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा मछली, शूकर रूप में उनके अवतारों में कोई अन्तर नहीं होता। वे सर्वव्यापी होने के साथ ही साथ किसी एक तथा प्रत्येक स्थान में अन्तर्यामी हैं। किन्तु अल्पज्ञानी मनुष्य भगवान् के परं भावम् के अभाव में यह नहीं समझ पाते कि भगवान् ने किस प्रकार मछली या मनुष्य का रूप धारण किया होगा। हर व्यक्ति अपने ज्ञान के मानदण्ड के अनुसार प्रत्येक वस्तु की तुलना करता है जैसे कोई कूपमण्डूक समुद्र को कुएँ के समान समझता है। कूपमण्डूक कभी समुद्र के विषय में सोच भी नहीं पाता और जब ऐसे मण्डूक को समुद्र की विशालता का पता चलता है, तो उसकी बुद्धि में यही सूझता है कि समुद्र कूप से थोड़ा ही बड़ा है। इस तरह जो ईश्वर के दिव्य विज्ञान को नहीं जानता वह मुश्किल से समझ पाता है कि भगवान् विष्णु किस प्रकार जीवों के प्रत्येक समाज में समान रूप से प्रकट हो सकते हैं।