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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  2.10.45 
नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्यानुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं हि तत् ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
—कभी नहीं; अस्य—इस सृष्टि के; कर्मणि—कार्य में; जन्म-आदौ—सृष्टि तथा संहार; परस्य—परमेश्वर का; अनुविधीयते— इस प्रकार वर्णित है; कर्तृत्व—कौशल; प्रतिषेध-अर्थम्—निषेध करने के लिए; मायया—बहिरंगा शक्ति द्वारा; आरोपितम्— प्रकट होता है; हि—क्योंकि; तत्—स्रष्टा ।.
 
अनुवाद
 
 भौतिक जगत की सृष्टि तथा संहार के लिए भगवान् के द्वारा किसी प्रकार का प्रत्यक्ष कौशल नहीं किया जाता। उनके प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के विषय में वेदों में जो कुछ वर्णित है, वह केवल इस विचार का निराकरण करने के लिए है कि भौतिक प्रकृति ही स्रष्टा है।
 
तात्पर्य
 भौतिक जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार के विषय में वैदिक आदेश इस प्रकार है— यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति अर्थात् प्रत्येक वस्तु ब्रह्म द्वारा उत्पन्न है, सृजन के पश्चात् प्रत्येक वस्तु ब्रह्म द्वारा पालित है और संहार के पश्चात् ब्रह्म में संरक्षित रहती है। निपट भौतिकतावादी ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् के विषय में कुछ भी न जानने के कारण प्रकृति को भौतिक संसार का परम कारण मानते हैं और आधुनिक विज्ञानी भी यही मत व्यक्त कर देता है कि भौतिक संसार की सभी वस्तुओं का चरम कारण प्रकृति है। सारा का सारा वैदिक साहित्य इस दृष्टिकोण का खण्डन करता है। वेदान्त दर्शन का कथन है कि समस्त सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय का मूल स्रोत-मुख ब्रह्म है और वेदान्त दर्शन के सहज भाष्य श्रीमद्भागवत का कथन है कि जन्माद्यस्य यतोऽन्वयाद् इतरताश्चार्थेष्वभिज्ञ: स्वराट्...।

जड़ पदार्थ में निस्सन्देह क्रिया करने की शक्ति निहित होती है, किन्तु इसमें कोई स्वत: प्रेरणा नहीं होती। अत: श्रीमद्भागवत जन्माद्यस्य सूक्ति की टीका यह कहते हुए करता है कि अभिज्ञ: तथा स्वराट्् अर्थात् परब्रह्म जड़ पदार्थ नहीं है, अपितु परम चेतन और स्वतन्त्र है। अत: भौतिक जगत की सृष्टि, स्थिति तथा संहार का परम कारण जड़ पदार्थ नहीं हो सकता। ऊपर से प्रकृति ही सृष्टि, स्थिति तथा संहार का कारणस्वरूप जान पड़ती है, किन्तु यह प्रकृति परम चेतन भगवान् द्वारा सृष्टि के लिए प्रेरित होती है। वे ही समस्त सृष्टि, पालन तथा संहार का मूलाधार हैं और इसकी पुष्टि भगवद्गीता (९.१०) में हुई है—

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥

प्रकृति भी भगवान् की शक्तियों में से एक है और वह भगवान् के आदेश (अध्यक्षेण) से ही कार्य कर सकती है। भगवान् जब प्रकृति पर अपनी दिव्य दृष्टि फेरते हैं तभी वह कार्य कर सकती है, जिस प्रकार पिता के संसर्ग से ही माता गर्भ धारण करती है। यद्यपि अबूझ व्यक्ति को लगता है कि माता पुत्र को जन्म देती है, किन्तु अनुभवी व्यक्ति जानता है कि पिता ही पुत्र का जन्मदाता है। अत: भौतिक प्रकृति परम पिता के सम्पर्क में आने पर ही जड़ तथा चेतन पदार्थों को जन्म देती है, स्वतन्त्र रूप से नहीं। प्रकृति को ही सृष्टि, पालन तथा संहार का कारण मानना “बकरी के गले में लटकते मांसल तोथड़ों को स्तन मानने का तर्क जैसा है।” श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्रीचैतन्य-चरितामृत में अजागलस्तन तर्क की व्याख्या इस प्रकार की है (इसका उल्लेख कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज ने किया है) “प्रकृति भौतिक कारण के रूप में प्रधान कहलाती है और सक्षम कारण के रूप में माया कहलाती है। किन्तु, चूँकि यह जड़ पदार्थ है, अत: यह सृष्टि का परोक्ष कारण नहीं है।” कविराज गोस्वामी इसे इस प्रकार कहते हैं—

अतएव कृष्ण मूल-जगत्-कारण।

प्रकृति—कारण यैछे अजागलस्तन ॥

(चैतन्यचरि. आदि ५.६१) चूँकि कारणार्णवशायी विष्णु, श्रीकृष्ण के अंश हैं, अत: वे ही पदार्थ को गतिशील होने के लिए विद्युत शक्ति प्रदान करते हैं। विद्युत प्रदान करने (विद्युतीकरण) का उदाहरण उपयुक्त है। लोहे का टुकड़ा अवश्य ही अग्नि नहीं है, किन्तु जब इसे तपाकर लाल कर दिया जाता है, तो इसमें जलाने की क्षमता के कारण अग्नि का गुण आ जाता है। पदार्थ की तुलना लोहे के खंड से की जाती है और यह विष्णु की परम चेतना की चितवन से या युक्ति से विद्युतमय या लाल अंगारा हो जाता है। ऐसे विद्युतीकरण से ही विभिन्न कार्य-कारणों में पदार्थ की शक्ति परिलक्षित होती है। अत: जड़ पदार्थ न तो सक्षम है, न दृश्य जगत का कारणस्वरूप। भागवत (३.२८.४०) में श्रीकपिल देव का कथन है—

यथोल्मुकाद्विस्फुलिङ्गाद्धूमाद्वापि स्व: सम्भवात्।

अप्यात्मत्वेनाभिमताद्यथाग्नि: पृथगुल्मुकात् ॥

मूल अग्नि, इसकी लपट (ज्वाला), इसकी चिनगरियाँ तथा इसका धुँआ—सभी एक हैं, क्योंकि अग्नि अग्नि होकर भी लपट से भिन्न है, लपट चिनगारी से और चिनगारी धुँए से भिन्न है। इन सब में अर्थात् लपटों, चिनगारियों और धुँए में, अग्नि की सत्ता विद्यमान है, तो भी ये सभी पृथक्-पृथक् सत्ता के साथ अलग-अलग होते हैं। दृश्य जगत धुँए के समान है, क्योंकि जब धुँआ आकाश में चला जाता है, तो वह अनेक रूप धारण करता है, जो अनेक ज्ञात एवं अज्ञात रूपों से मिलता जुलता होता है। चिनगारियाँ जीवों के तुल्य हैं और लपटें भौतिक प्रकृति (प्रधान) के समान हैं। मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि इनमें से प्रत्येक अपना प्रभाव केवल इसलिए दिखाती है, क्योंकि उन्हें मूल अग्नि के गुण की शक्ति प्राप्त है। अत: ये सभी—भौतिक प्रकृति, दृश्य जगत तथा जीव ईश्वर (अग्नि) की विभिन्न शक्तियाँ है। अत: जो लोग प्रकृति को दृश्य जगत का मूल कारण (सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि का कारण प्रकृति है) मान बैठते हैं, वे अपने इस निष्कर्ष में सही नहीं हैं। भौतिक प्रकृति का भगवान् के बिना पृथक् अस्तित्व नहीं रहता है। अत: परमेश्वर को समस्त कारणों का कारण न बताना ही अजागलस्तन न्याय का तर्क है—भले ही बकरी के गलस्तन दुग्धमय लगें, किन्तु उनसे दूध निकालने के लिए प्रयास करना मूर्खता है।

 
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