निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि: ।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
निरोध:—जगत का लय; अस्य—उसका; अनुशयनम्—पुरुष अवतारी महाविष्णु का योगनिद्रा में लेटना; आत्मन:— जीवात्माओं का; सह—साथ; शक्तिभि:—शक्तियों के साथ; मुक्ति:—मुक्ति; हित्वा—त्याग कर; अन्यथा—नहीं तो; रूपम्— रूप; स्व-रूपेण—स्वरूप में; व्यवस्थिति:—स्थायी पद ।.
अनुवाद
अपनी बद्धावस्था के जीवन-सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है। परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ‘मुक्ति’ है।
तात्पर्य
जैसाकि हम कई बार कह चुके हैं जीवात्मा दो प्रकार के होते हैं। उनमें से अधिकांश नित्य-मुक्त होता हैं और कुछ नित्य-बद्ध होते हैं। नित्य-बद्ध जीवों में प्रकृति के ऊपर स्वामित्व प्राप्त करने की मानसिकता के विकास की संभावना होती है, अत: उन्हें दो प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए भौतिक विश्व का प्राकट्य होता है। पहली सुविधा के अनुसार बद्धजीव स्वेच्छा से विश्व पर अधिकार जमा सकता है और दूसरी सुविधा के अनुसार वह भगवान् के धाम को वापस जा सकता है। अत: विश्व के लय होने पर अधिकांश बद्धजीव योगनिद्रा में लेटे हुए भगवान् महाविष्णु में लीन हो जाते हैं जिससे वे अगली सृष्टि में पुन: जन्म लें। किन्तु कुछ बद्धजीव वैदिक साहित्य की दिव्य ध्वनि का अनुसरण करते हुए भगवान् के धाम को वापस जाने में समर्थ होते हैं और अपने बद्ध स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक शरीरों को त्याग कर आध्यात्मिक एवं आदि शरीर प्राप्त करते हैं। ईश्वर से अपने सम्बन्धों को भूल जाने से जीवात्माओं को भौतिक बद्ध शरीर प्राप्त होते हैं और विश्व के प्राकट्य होने पर बद्धजीवों को शास्त्रों की सहायता से, जिन्हें भगवान् ने अपने विभिन्न अवतारों के समय कृपावश संकलित किया है, अपनी मूल स्थिति को पुनरुज्जीवित करने का अवसर प्रदान किया जाता है। ऐसे दिव्य साहित्य के श्रवण या पठन से बद्ध अवस्था में होते हुए भी जीव को मुक्त होने में सहायता मिलती है। समस्त वैदिक साहित्य का उद्देश्य श्रीभगवान् की भक्ति-मय सेवा करना है और जैसे ही इस पद पर कोई स्थित हो जाता है उसे तुरन्त ही बद्धजीवन से छुटकारा मिल जाता है। भौतिक स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों का कारण मात्र बद्धजीव की अज्ञानता है और ज्योंही वह भगवान् की भक्ति में स्थित हो जाता है, वह बद्ध अवस्था से मुक्ति पाने का अधिकारी बन जाता है। यह भक्ति परमेश्वर के लिए दिव्य आकर्षण होती है, क्योंकि परमेश्वर समस्त भावों (रसों) के स्रोत हैं। प्रत्येक प्राणी किसी न किसी भाव के आनन्द का इच्छुक होता है, किन्तु वह समस्त आकर्षण के परम स्रोत को नहीं जानता (रसो वै स: रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति)। वैदिक स्तोत्र समस्त आनन्द के परम स्रोत की जानकारी देते हैं, समस्त आनन्द का अजस्र स्रोत भगवान् हैं और जो भाग्यशाली मनुष्य श्रीमद्भागवत जैसे दिव्य ग्रन्थों के द्वारा इस सन्देश को प्राप्त करने में समर्थ है, वह सदा के लिए मुक्त होकर वैकुण्ठ में अपना उचित स्थान ग्रहण करता है।
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