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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  2.10.7 
आभासश्च निरोधश्च यतोऽस्त्यध्यवसीयते ।
स आश्रय: परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
आभास:—जगत की उत्पत्ति; —तथा; निरोध:—तथा लय; —भी; यत:—स्रोत से; अस्ति—है; अध्यवसीयते—प्रकट होता है; स:—वह; आश्रय:—आगार; परम्—परम; ब्रह्म—जीव; परमात्मा—परम-आत्मा; इति—इस प्रकार; शब्द्यते—कहा गया है ।.
 
अनुवाद
 
 परम पुरुष अथवा परमात्मा कहलाने वाले परमेश ही दृश्य जगत के परम स्रोत, इसके आगार (आश्रय) तथा लय हैं। इस प्रकार वे परम स्रोत, परम सत्य हैं।
 
तात्पर्य
 जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में कहा गया है समस्त शक्तियों के परम स्रोत के पर्याय जन्माद्यस्य यत:, वदन्ति तत् तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानम् अद्वयम् ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान् इति शब्द्यते, परब्रह्म, परमात्मा या भगवान् कहलाते हैं। इस श्लोक में इति शब्द के प्रयोग से पर्यायों का अन्त हो जाता है और इस प्रकार भगवान् का द्योतक है। इसकी और व्याख्या बाद के श्लोकों में की जाएगी, किन्तु, अन्तत: इस भगवान् का अर्थ है भगवान् कृष्ण, क्योंकि श्रीमद्भागवत ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को कृष्ण रूप में पहले ही मान लिया है। कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् समस्त शक्तियों का मूलाधार परम सत्य है, जो परब्रह्म इत्यादि कहलाता है और भगवान् परम सत्य के लिए अन्तिम शब्द है। किन्तु भगवान् के पर्यायों में से—यथा नारायण, विष्णु तथा पुरुष में से अन्तिम शब्द कृष्ण है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है—अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते। इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत भगवान् के शब्द अवतार रूप में भगवान् कृष्ण का प्रतिरूप है—

कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभि: सह।

कलौ नष्टदृशामेष: पुराणार्कोऽधुनोदित: ॥

(भागवत १.३.४३) इस प्रकार यह निष्कर्ष निकला कि भगवान् श्रीकृष्ण समस्त शक्तियों के परम स्रोत हैं और कृष्ण शब्द का अर्थ भी यही है। कृष्ण अथवा कृष्ण-तत्त्व की व्याख्या के लिए ही श्रीमद्भागवत की रचना की गई है। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध में सूत गोस्वामी तथा शौनक जैसे महान् ऋषियों के प्रश्नोत्तर से इस सत्य की जानकारी मिलती है और इसी स्कंध के प्रथम तथा द्वितीय अध्यायों में इसकी व्याख्या है। तृतीय अध्याय में विषय को स्पष्ट किया गया है तथा चतुर्थ अध्याय में यह और भी स्पष्ट होती जाती है। द्वितीय स्कंध में श्रीभगवान् के रूप में परम सत्य पर बल दिया गया है और परम-ईश्वर श्रीकृष्ण हैं, ऐसा दर्शाया गया है। जैसाकि पहले कहा जा चुका है चार श्लोकों में श्रीमद्भागवत का सार संक्षेप में दिया गया है। इन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विषय की अन्तत: ब्रह्मा ने ब्रह्म-संहिता में इस प्रकार पुष्टि की है—ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द-विग्रह:। ऐसा ही श्रीमद्भागवत् के तृतीय स्कंध से निष्कर्ष निकलता है। पूर्ण विषय की विस्तृत व्याख्या श्रीमद्भागवत् के दशम तथा एकादश स्कंधों में मिलती है। स्वायंभुव मन्वन्तर तथा चाक्षुष मन्वन्तर जैसे मन्वन्तरों के प्रसंग में, जिनकी व्याख्या तृतीय, चर्तुथ, पंचम, पष्ठ तथा सप्तम स्कंध में की गई है, श्रीकृष्ण का ही संकेत है। अष्टम स्कंध में वैवस्वत मन्वन्तर से भी अप्रत्यक्ष रूप में उसी विषय की व्याख्या होती है। नवम स्कंध का भी वही सार है। बारहवें स्कंध में विशेष रूप से भगवान् के विविध अवतारों के विषय में आगे व्याख्या की गई है। इस प्रकार सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त शक्ति के परम स्रोत हैं। उपासकों की कोटियों के अनुसार नारायण, ब्रह्म, परमात्मा इत्यादि नामों की व्याख्या अलग-अलग हो जाती है।

 
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