श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 10: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  2.10.9 
एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे ।
त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रय: ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
एकम्—एक; एकतर—अन्य; अभावे—के न होने पर; यदा—क्योंकि; न—नहीं; उपलभामहे—दृश्य; त्रितयम्—तीन अवस्थाएँ; तत्र—वहाँ; य:—जो; वेद—जानता है; स:—वह; आत्मा—परमात्मा; स्व—निज; आश्रय—शरण; आश्रय:— शरण का ।.
 
अनुवाद
 
 विभिन्न जीवात्माओं की उपर्युक्त तीनों अवस्थाएँ अन्योन्याश्रित हैं। किसी एक के अभाव में दूसरे को नहीं समझा जा सकता। किन्तु परमेश्वर इन सबको एक दूसरे के आश्रय रूप में देखता हुआ इन सबसे स्वतन्त्र है, अत: वह परम आश्रय है।
 
तात्पर्य
 जीवात्माएँ असंख्य हैं और नियन्त्रक तथा नियन्त्रित सम्बन्ध द्वारा एक दूसरे पर आश्रित हैं। किन्तु बिना देखे कोई यह नहीं जान सकता है कि कौन नियन्त्रक है और कौन नियन्त्रित है। उदाहरणार्थ, सूर्य हमारी दृष्टि का नियन्त्रक है हम सूर्य को देखते हैं, क्योंकि सूर्य के शरीर है और सूर्य का प्रकाश केवल इसीलिए उपयोगी है, क्योंकि हमारे नेत्र हैं (हम देखते हैं)। बिना नेत्र के सूर्य प्रकाश अर्थहीन है और सूर्य-प्रकाश के बिना नेत्र व्यर्थ हैं। इस प्रकार वे अन्योन्याश्रित हैं। इनमें से कोई भी स्वतन्त्र नहीं है। अत: स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि किसने इन्हें अन्योन्याश्रित बनाया? जिसने ऐसा किया होगा वह अवश्य ही पूर्णत: स्वतन्त्र होगा। जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में कहा गया है समस्त अन्योन्याश्रित वस्तुओं का परम स्रोत पूर्ण स्वतन्त्र तत्त्व होता है। इन सभी अन्योन्याश्रित तत्त्वों का ऐसा स्रोत परम सत्य या परमात्मा है, जो अन्य किसी वस्तु पर आश्रित नहीं है। वह स्वाश्रयाश्रय: है। वह केवल अपने आप पर आश्रित है, अत: प्रत्येक वस्तु का परम आश्रय वह है। यद्यपि परमात्मा तथा ब्रह्म भगवान् के आश्रित हैं, क्योंकि भगवान् ही पुरुषोत्तम या परम पुरुष हैं, किन्तु वह परमात्मा का भी स्रोत है। भगवद्गीता (१५.१८) में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि वे पुरुषोत्तम हैं और हर वस्तु के स्रोत हैं, अत: यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रीकृष्ण समस्त जीवों के, यहाँ तक कि परमात्मा तथा परब्रह्म के भी, परमस्रोत तथा आश्रय हैं। यदि हम यह मान भी लें कि परमात्मा तथा आत्मा में कोई अन्तर नहीं है, तो भी आत्मा माया के मोह से मुक्त होने के लिए परमात्मा पर आश्रित है। प्रत्येक व्यक्ति माया के चंगुल में फँसा है, अत: गुणात्मक रूप से परमात्मा से अभिन्न होते हुए भी वह अपने को पदार्थ मानने के मोह से ग्रस्त है और इस यथार्थ जीवन के मोहमय विचार से उबर पाने के लिए आत्मा को परमात्मा के आश्रित रहना होता है, जिससे वह उसी रूप में मान्य हो। इस दृष्टि से भी परमात्मा परम आश्रय है और इसके विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।

जीवात्मा या जीव सदा परमात्मा पर आश्रित है, क्योंकि आत्मा अपनी पहचान (सत्ता) भूल जाता है, किन्तु परमात्मा अपनी दिव्य स्थिति को नहीं भूलता। भगवद्गीता में जीवात्मा तथा परमात्मा की पृथक्-पृथक् स्थितियों का उल्लेख हुआ है। चतुर्थ अध्याय में जीवात्मा रूप अर्जुन को इस प्रकार चित्रित किया गया है, जिसे अपने अनेक पूर्वजन्मों की स्मृति नहीं हैं, किन्तु परमात्मास्वरूप भगवान् को सब कुछ स्मरण रहता है। भगवान् को इतना तक स्मरण है कि करोड़ों वर्ष पूर्व उन्होंने सूर्यदेव को भगवद्गीता की शिक्षा दी थी। भगवान् लाखों-करोड़ों वर्ष पुरानी घटनाएँ स्मरण रख सकते हैं जैसाकि भगवद्गीता (७.२६) में कहा गया है—

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥

सच्चिदानन्द रूप भगवान् को इसका पूरा ज्ञान है कि भूतकाल में क्या हुआ, वर्तमान काल में क्या हो रहा है और भविष्य में क्या होगा। ऐसे परमात्मा तथा ब्रह्म के आश्रय भगवान् को अल्पज्ञ नहीं समझ पाते।

विश्वचेतना तथा जीवात्मा की चेतना को एकरूप मानने का प्रचार भ्रामक है, क्योंकि अर्जुन जैसा व्यक्ति, जो सदैव भगवान् के साथ रहा, अपने अतीत के कर्मों को स्मरण नहीं रख सका तो भला तुच्छ मनुष्य अपने को झूठमूठ विश्वचेतना से एकरूप बताकर किस प्रकार अपने भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जान सकता है?

 
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