श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  2.2.1 
श्रीशुक उवाच
एवं पुरा धारणयात्मयोनि-
र्नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात् ।
तथा ससर्जेदममोघद‍ृष्टि-
र्यथाप्ययात् प्राग् व्यवसायबुद्धि: ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्—इस प्रकार; पुरा—विश्व के प्राकट्य के पूर्व; धारणया—ऐसी धारणा द्वारा; आत्म-योनि:—ब्रह्माजी की; नष्टाम्—विनष्ट; स्मृतिम्—स्मृति, याददाश्त; प्रत्यवरुध्य—पुन: चेतना प्राप्त करके; तुष्टात्— भगवान् को प्रसन्न करने के कारण; तथा—तत्पश्चात्; ससर्ज—सृजन किया; इदम्—यह भौतिक जगत; अमोघ-दृष्टि:—जिसे स्पष्ट दृष्टि प्राप्त है; यथा—जिस प्रकार; अप्ययात्—निर्मित किया; प्राक्—पहले की तरह; व्यवसाय—सुनिश्चित; बुद्धि:— बुद्धि ।.
 
अनुवाद
 
 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस ब्रह्माण्ड के प्राकट्य के पूर्व, ब्रह्माजी ने विराट रूप के ध्यान द्वारा भगवान् को प्रसन्न करके विलुप्त हो चुकी अपनी चेतना प्राप्त की। इस तरह वे सृष्टि का पूर्ववत् पुनर्निर्माण कर सके।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर ब्रह्माजी की विस्मृति का उदाहरण दिया गया है। ब्रह्माजी भगवान् के भौतिक गुणों में से एक गुण के अवतार हैं। वे प्रकृति के रजोगुण के अवतार होने के कारण भगवान् द्वारा सुन्दर भौतिक सृष्टि की रचना करने के लिए शक्तिप्रदत्त हैं। तो भी असंख्य जीवों में से एक होने के नाते, वे अपनी सृजनात्मक शक्ति की कला को भूल जाते हैं। जीव की यह विस्मृति, जो ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक पाई जाती है, ऐसी प्रवृत्ति है, जिसका शमन भगवान् के विराट-रूप के ध्यान द्वारा किया जा सकता है। यह अवसर मनुष्य योनि में प्राप्त होता है और यदि मनुष्य श्रीमद्भागवत के आदेश का पालन करके, विराट-रूप का ध्यान करना प्रारम्भ कर देता है, तो उसकी शुद्ध चेतना का पुन:उदय हो सकता है तथा साथ ही भगवान् के साथ अपने नित्य सम्बन्ध की विस्मृति का निराकरण हो जाता है। ज्योंही यह विस्मृति दूर हो जाती है त्योंही व्यवसायबुद्धि आ जाती है, जिसका यहाँ पर और भगवद्गीता (२.४१) में भी उल्लेख हुआ है। जीव के इस सुनिश्चित ज्ञान से भगवान् की प्रेमाभक्ति उत्पन्न होती है, जिसकी जीव को आवश्यकता होती है। ईश्वर का साम्राज्य असीम है, अतएव भगवान् के सहायक हाथों की संख्या भी अनन्त है। भगवद्गीता (१३.१४) बल देकर कहती है कि भगवान् की सृष्टि के कोने-कोने में उनके हाथ, पाँव, मुँह तथा आँखे हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जीव कहलाने वाले भगवान् के अंश ही उनके सहायक हाथ हैं और ये सब विशेष प्रकार की भगवत्सेवा के निमित्त हैं। बद्धजीव, चाहे वह ब्रह्मा के पद पर ही क्यों न हो, मिथ्या अहंकार से उत्पन्न बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से इसे भूल जाता है। ऐसे मिथ्या अंहकार का निराकरण मनुष्य ईश-चेतना प्राप्त करके कर सकता है। मुक्ति का अर्थ है विस्मृति की निद्रा से निकल कर बाहर आना और भगवान् की असली प्रेमा-भक्ति को प्राप्त होना, जैसाकि ब्रह्मा के उदाहरण से स्पष्ट है। ब्रह्मा द्वारा की गई सेवा मुक्तावस्था में की जानेवाली सेवा का नमूना है और यह तथाकथित परोपकार से भिन्न है, जो त्रुटियों तथा विस्मृतियों से पूर्ण होता है। मुक्ति कभी भी निष्क्रियता नहीं है, अपितु यह मानवीय त्रुटियों से विहीन सेवा है।
 
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