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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  2.2.15 
स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यति-
र्यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्
प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासु: ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
स्थिरम्—स्थिर; सुखम्—आरामदेह; —भी; आसनम्—बैठने का आसन; आस्थित:—स्थित होकर; यति:—साधु; यदा— जब भी; जिहासु:—त्यागना चाहता है; इमम्—इसे; अङ्ग—हे राजा; लोकम्—शरीर को; काले—समय में; —तथा; देशे— उचित स्थान में; —भी; मन:—मन; —नहीं; सज्जयेत्—उद्विग्न न हो; प्राणान्—प्राणों को; नियच्छेत्—वश में करे; मनसा—मन से; जित-असु:—प्राणवायु को जीतकर ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, जब भी योगी इस मानव लोक को छोडऩे की इच्छा करे तो वह उचित काल या स्थान की तनिक भी इच्छा न करते हुए, सुविधापूर्वक अविचल भाव से आसन लगा ले और प्राणवायु को नियमित करके मन द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करे।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता (८.१४) में स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में पूर्णत: निरत रहता है और जो पग-पग पर उन्हीं का निरन्तर स्मरण करता है, वह भगवान् का साक्षात् सान्निध्य प्राप्त करके, आसानी से उन की दया प्राप्त करता है। ऐसे भक्तों को वर्तमान शरीर-त्याग के लिए उपयुक्त समय ढूँढने की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु जो मिश्रित भक्त हैं और सकाम कर्म या ज्ञान को मिलाए हुए हैं, उन्हें इस शरीर का त्याग करने के लिए उपयुक्त क्षण की अपेक्षा रहती है। उनके लिए ऐसे उपयुक्त क्षणों का उल्लेख भगवद्गीता (८.२३-२६) में हुआ है। लेकिन ये उपयुक्त क्षण उतने महत्त्वपूर्ण नहीं होते, जितना कि मनुष्य का ऐसा सफल योगी होना जो इच्छानुसार शरीर का त्याग कर सके। ऐसे योगी को मन द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने मेंं सक्षम होना चाहिए। मन को सहज भाव से भगवान् के चरणकमलों में लगाकर सरलता से जीता जा सकता है। ऐसी सेवा से क्रमश: सारी इन्द्रियाँ स्वत: भगवान् की सेवा में लग जाती हैं। परम सत्य से तदाकार होने का यही मार्ग है।
 
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