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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  2.2.16 
मन: स्वबुद्ध्यामलया नियम्य
क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत् तमात्मनि ।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो
लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
मन:—मन को; स्व-बुद्ध्या—अपनी बुद्धि से; अमलया—विशुद्ध; नियम्य—नियमित करके; क्षेत्र-ज्ञे—जीव को; एताम्—ये सब; निनयेत्—विलीन करे; तम्—उसको; आत्मनि—आत्मा में; आत्मानम्—आत्मा को; आत्मनि—परम आत्मा में; अवरुध्य—बँधकर; धीर:—पूर्ण रूप से तुष्ट; लब्ध-उपशान्ति:—जिसने पूर्ण आनन्द प्राप्त कर लिया है; विरमेत—विराम लेता है; कृत्यात्—अन्य कृत्यों से ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् योगी को चाहिए कि वह अपनी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने मन को जीवात्मा में तदाकार करे और फिर जीवात्मा को परम आत्मा में विलीन कर दे। ऐसा करने के बाद, पूर्णतया तुष्ट जीव, तुष्टि की चरमावस्था को प्राप्त होता है, जिससे वह अन्य सारे कार्यकलाप बन्द कर देता है।
 
तात्पर्य
 मन के कार्य हैं—सोचना, अनुभव करना और इच्छा करना। जब मन भौतिकतावादी होता है या भौतिक संसर्ग में लीन रहता है, तो वह ज्ञान की भौतिक उन्नति के लिए कार्य करता है, जिसकी चरम परिणति नाभिकीय अस्त्रों की खोज में होती है। किन्तु जब मन आध्यात्मिक संवेग के अन्तर्गत कार्य करता है, तो वह जीवन में पूर्ण आनन्द तथा नित्यता के लिए अपने घर अर्थात् भगवद्धाम वापस जाने के लिए आश्चर्यजनक ढंग से काम करता है। अतएव मन को उत्तम तथा विशुद्ध बुद्धि के द्वारा सुनियोजित किया जाना चाहिए। परि-पूर्ण बुद्धि भगवान् की सेवा करने के निमित्त होती है। मनुष्य को इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि जीव समस्त परिस्थितियों में परिस्थितियों का दास है। प्रत्येक जीव इच्छा, क्रोध, वासना, भ्रम, पागलपन तथा ईर्ष्या के आदेशों के अनुसार सेवा करता है और ये सब की सब भौतिकता से प्रभावित हैं। किन्तु इन समस्त संवेगों के आदेशों का पालन करने हेतु वह निरन्तर दुखी रहता है। जब वह वास्तव में इसका अनुभव करता है और सही स्रोतों से इसकी खोज करने के लिए अपनी बुद्धि दौड़ाता है, तो उसे भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति का पता लगता है। तब बुद्धि शरीर के उपर्युक्त रसों की भौतिकता की दृष्टि से सेवा न करके, भौतिकतावादी मनोवृत्ति के दुखद भ्रम से मुक्त हो जाती है और इस प्रकार मन विशुद्ध बुद्धि से भगवान् की सेवा में लग जाता है। भगवान् एवं उनकी सेवा, परम धरातल पर होने के कारण अभिन्न हैं। अतएव अमिश्रित बुद्धि तथा मन भगवान् में तदाकार हो जाते हैं और इस तरह जीव मात्र दृष्टा नहीं रह जाता, अपितु भगवान् के दिव्यगुण द्वारा दृश्य हो उठता है; जब जीव भगवान् द्वारा प्रत्यक्षत: देख लिया जाता है, तो वे अपनी इच्छानुसार जीव को आदेशित करते हैं और जब जीव उनके आदेशों का पूर्णत: पालन करने लगता है, तो जीव अपनी भ्रामक तुष्टि के लिए अन्य कार्य करना बन्द कर देता है। जीव अपनी शुद्ध अवस्था में पूर्ण आनन्द की उपलब्धि—लब्धोपशान्ति—करता है और समस्त भौतिक लालसाओं से निवृत्त हो जाता है।
 
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