श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  2.2.17 
न यत्र कालोऽनिमिषां पर: प्रभु:
कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च
न वै विकारो न महान् प्रधानम् ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; यत्र—जहाँ; काल:—विनाशकारी काल; अनिमिषाम्—देवताओं का; पर:—श्रेष्ठ; प्रभु:—नियन्ता; कुत:—कहाँ है; नु—निश्चय ही; देवा:—देवता; जगताम्—संसारी प्राणी; ये—जो; ईशिरे—नियम; न—नहीं; यत्र—जहाँ; सत्त्वम्—संसारी अच्छाई, सतोगुण; न—न तो; रज:—संसारी काम; तम:—संसारी अज्ञान, तमोगुण; च—भी; न—न तो; वै—निश्चय ही; विकार:—रूपान्तर; न—न तो; महान्—भौतिक कारणार्णव; प्रधानम्—भौतिक प्रकृति ।.
 
अनुवाद
 
 उस लब्धोपशान्ति की दिव्य अवस्था में विनाशकारी काल की श्रेष्ठता नहीं रह पाती, जो उन देवी-देवताओं का भी नियामक है, जिन्हें संसारी प्राणियों के ऊपर शासन करने की शक्ति प्राप्त है। (तो फिर स्वयं देवताओं के विषय में क्या कहा जाये?)। इस अवस्था में न तो सतोगुण, रजोगुण या तमोगुण रहते हैं, न ही मिथ्या अहंकार, भौतिक कारणार्णव अथवा न भौतिक प्रकृति ही रह पाती है।
 
तात्पर्य
 विनाशकारी काल, जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य के रूप में, स्वर्गस्थ देवताओं को भी नियन्त्रित करता है, आध्यात्मिक धरातल पर अपना प्रभाव नहीं दिखा पाता। काल का प्रभाव जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के रूप में प्रकट होता है और ये चारों नियम भौतिक ब्रह्माण्ड के किसी भी भाग में, ब्रह्मलोक तक जहाँ लोगों की आयु अत्यधिक है, सर्वत्र पाये जाते हैं, ।

दुर्जेय काल ब्रह्मा तक की मृत्यु का कारण बनता है, तो इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वायु तथा वरुण जैसे अन्य देवताओं के विषय में क्या कहा जाये? विभिन्न देवताओं द्वारा संसारी प्राणियों पर निक्षिप्त ज्योतिष-प्रभाव भी स्पष्ट रुप से अनुपस्थित रहता है। भौतक जगत में सारे जीव शैतान से भयभीत रहते हैं, किन्तु दिव्य पद पर स्थित भक्त को ऐसा भय नहीं रहता। सारे जीव प्राकृतिक विभिन्न गुणों के प्रभाव से विभिन्न रूपों तथा आकारों से अपने-अपने भौतिक शरीर बदलते रहते हैं, लेकिन दिव्य स्थिति में भक्त गुणातीत अर्थात् सतो, रजो तथा तमो गुणों से परे होता है। इस प्रकार “मैं जहाँ तक जा सकता हूँ, उसका स्वामी हूँ” यह मिथ्या अहंकार वहाँ नहीं उठ पाता। भौतिक जगत में प्रकृति के ऊपर प्रभुता दिखाने का मिथ्या अहंकार प्रज्ज्वलित अग्नि में पतंगों के गिरने के समान है। पतंगा अग्नि के दीप्तिमान सौन्दर्य पर मोहित होता है, किन्तु जब वह इसका भोग करने चलता है, तो अग्नि उसे जलाकर राख कर देती है। दिव्य स्थिति में जीव की चेतना शुद्ध रहती है, अतएव प्रकृति पर प्रभुता जताने का उसमें मिथ्या अहंकार नहीं रहता प्रत्युत उसकी शुद्ध चेतना उसे परमेश्वर की शरण में जाने के लिए निर्देशित करती है, जैसाकि भगवद्गीता (७.१९) में कहा गया है—वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:। इससे संकेत मिलता है कि दिव्य स्थिति में न तो भौतिक सृष्टि रहती है, न ही भौतिक प्रकृति के लिए कारणार्णव रहता है।

उपर्युक्त परिस्थिति दिव्य धरातल पर वास्तविक है। किन्तु यह योगी की शुद्ध चेतना की उच्च अवस्था में प्रकट होती है। ऐसे योगी दो प्रकार के होते हैं—निर्विशेषवादी तथा भक्त। निर्विशेषवादियों का चरम लक्ष्य रहता है परव्योम की ब्रह्मज्योति, किन्तु भक्तों का लक्ष्य वैकुण्ठ लोक रहता है। भक्तों को उपर्युक्त स्थिति का अनुभव भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के लिए सक्रिय होने हेतु दिव्य रूप पा कर होता है। लेकिन निर्विशेषवादी भगवान् की संगति की उपेक्षा करने के कारण आध्यात्मिक सक्रियता के लिए आध्यात्मिक शरीर विकसित नहीं कर पाता, अपितु भगवान् की ब्रह्मज्योति में आध्यात्मिक स्फुलिंग के रूप में विलीन हो जाता है। भगवान् पूर्णत: सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं, जबकि निर्विशेष ब्रह्मज्योति केवल सत् तथा चित् है। वैकुण्ठ लोक भी सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं, अतएव भगवान् के वे भक्त भी, जो भगवान् के धाम में प्रवेश पाते हैं, सच्चिदानन्द-स्वरूप प्राप्त करते हैं। इस तरह उनमें परस्पर कोई अन्तर नहीं रहता। भगवान् के धाम, नाम, यश, पार्षद आदि एक ही दिव्य गुण वाले हैं और यह दिव्य गुण भौतिक जगत से किस प्रकार भिन्न होता है, इसकी व्याख्या इस श्लोक में की गई है। भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने तीन प्रमुख विषयों—कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग—का वर्णन किया है, किन्तु इनमें से केवल भक्तियोग द्वारा ही मनुष्य वैकुण्ठ लोक पहुँच सकता है। अन्य दो विषय वैकुण्ठ लोक पहुँचाने में अक्षम रहते हैं, भले ही वे ब्रह्मज्योति तक सुगमता से पहुँचा दें जैसाकि ऊपर वर्णन किया गया है।

 
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