योगीजन ईश्वर-विहीन प्रत्येक वस्तु से बचना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें उस परम स्थिति का पता है, जिसमें प्रत्येक वस्तु भगवान् विष्णु से सम्बन्धित है। अतएव वह शुद्ध भक्त, जो कि भगवान् से पूर्ण ऐक्य रखता है, जटिलताएँ उत्पन्न नहीं करता, अपितु भगवान् के चरण-कमलों को हृदय में धारण करके उनकी प्रत्येक क्षण पूजा करता है।
तात्पर्य
भगवद्गीता में मद्धाम (मेरा धाम) का कई बार उल्लेख आया है और भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार परव्योम असीम है, जिसमें स्थित लोक वैकुण्ठ या भगवान् के धाम कहलाते हैं। उस व्योम में जो भौतिक व्योम से तथा इसके सात आवरणों से बहुत ही दूरी पर है, वहाँ न तो सूर्य या चाँद की आवश्यकता है, न ही प्रकाश के लिए बिजली की, क्योंकि ये लोक स्वयं प्रकाशित हैं और भौतिक सूर्यों से अधिक चमकीले हैं। सारे भगवद्भक्त भगवान् के घनिष्ठ सम्पर्क में रहते हैं अथवा दूसरे शब्दों में, वे भगवान् को अपना एकमात्र विश्वस्त मित्र तथा सुहृद मानते हैं। वे ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा समेत सारे संसारी प्राणियों की कोई परवाह नहीं करते। केवल उन्हें ही सारे वैकुण्ठ लोक स्पष्ट दिखते हैं। ऐसे शुद्ध भक्त परमेश्वर के निर्देशन में रहकर दिव्य ज्ञान की किसी कृत्रिम चिन्ता मेंं नहीं पड़ते और न ब्रह्म क्या है, माया क्या है, इसकी व्याख्या में समय गँवाते हैं। वे न तो अपने को भगवान् के साथ झूठा तदाकार हुआ मानते हैं, न यह तर्क करते हैं कि ईश्वर का अलग से अस्तिव नहीं है या कि ईश्वर है ही नहीं या जीव ही ईश्वर है या जब ईश्वर अवतार ग्रहण करता है, तो वह भौतिक शरीर धारण करता है। न ही वे किसी अस्पष्ट चिन्तन-सिद्धान्त से चिन्तित रहते हैं, जो वास्तव में दिव्य ज्ञान के मार्ग में कई प्रकार से अवरोधक होते हैं। निर्विशेषवादी या अभक्त-वर्ग के अतिरिक्त ऐसे भी वर्ग हैं, जो अपने को भगवद्भक्त कहते हैं, किन्तु अपने अन्त:करण में मोक्ष की भावना छिपाये रहकर निर्विशेष ब्रह्म से तदाकार होना चाहते हैं। वे खुले विलास द्वारा भक्ति का अपना गलत मार्ग निकाल लेते हैं और दूसरे ऐसे लोगों को मार्गच्युत करते हैं, जो निरे मूर्ख या उन्हीं के समान व्यसनी होते हैं। विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार, ये सारे अभक्त तथा व्यसनी महात्माओं के वेश में दुरात्मा होते हैं। ऐसे अभक्त तथा लम्पट इस श्लोक में शुकदेव गोस्वामी द्वारा योगियों की सूची से विलग कर दिये गये हैं।
इस तरह वैकुण्ठ लोक वास्तव में श्रेष्ठतम आवास-स्थान हैं, जिन्हें परं पदम् कहा जाता है। निर्विशेष ब्रह्मज्योति भी परं पदम् कहलाती है, क्योंकि सूर्य की किरणों के ही समान ये वैकुण्ठ लोक की किरणें हैं। भगवद्गीता (१४.२७) में स्पष्ट कहा गया है कि निर्विशेष ब्रह्मज्योति भगवान् के शरीर पर आधारित रहती है और चूँकि प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से ब्रह्मज्योति पर निर्भर रहती है, अतएव प्रत्येक वस्तु भगवान् से उत्पन्न होती है, उन्हीं पर आश्रित रहती है और प्रलय के बाद उन्हीं में विलीन हो जाती है। अतएव उनसे कोई भी वस्तु स्वतन्त्र नहीं। भगवान् का शुद्ध भक्त अपना समय अब्रह्म एवं ब्रह्म में अन्तर करने में नहीं गँवाता, क्योंकि वह भलीभाँति जानता रहता है कि भगवान् परब्रह्म अपनी ब्रह्मशक्ति से हर वस्तु में गुँथे हुए हैं। इस तरह भक्त प्रत्येक वस्तु को भगवान् की सम्पत्ति के रूप में देखता है। भक्त हर वस्तु का उपयोग उन्हीं की सेवा में करना चाहता है और वह प्रकृति पर अपनी अनुचित प्रभुता जता कर के किसी प्रकार की जटिलता उत्पन्न नहीं करता। वह इतना आज्ञाकारी होता है कि अपने आपको तथा हर वस्तु को भगवान् की दिव्य सेवा में लगाता है, भक्त हर वस्तु में भगवान् का दर्शन करता है और भगवान् में हर वस्तु को देखता है। दुरात्मा द्वारा उत्पन्न किया गया उत्पात उसकी इस धारणा के कारण उपजता है कि भगवान् का दिव्य रूप भौतिक है।
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