शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था
यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थै: ।
परिभ्रमंस्तत्र न विन्दतेऽर्थान्
मायामये वासनया शयान: ॥ २ ॥
शब्दार्थ
शाब्दस्य—वैदिक ध्वनि का; हि—निश्चय ही; ब्रह्मण:—वेदों का; एष:—ये; पन्था:—मार्ग; यत्—जो है; नामभि:—विभिन्न नामों से; ध्यायति—ध्यान करता है; धी:—बुद्धि; अपार्थै:—व्यर्थ के विचारों से; परिभ्रमन्—घूमते हुए; तत्र—वहाँ; न—कभी नहीं; विन्दते—भोग करता है; अर्थान्—वास्तविकताओं को; माया-मये—मोहमयी वस्तुओं में; वासनया—विभिन्न इच्छाओं से; शयान:—मानो निद्रा में स्वप्न देख रहा हो ।.
अनुवाद
वैदिक ध्वनियों (वेदवाणी) को प्रस्तुत करने की विधि इतनी मोहनेवाली है कि यह व्यक्तियों की बुद्धि को स्वर्ग जैसी व्यर्थ की वस्तुओं की ओर ले जाती है। बद्धजीव ऐसी स्वर्गिक मायामयी वासनाओं के स्वप्नों में मँडराते रहते हैं, लेकिन उन्हें ऐसे स्थानों में सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती।
तात्पर्य
बद्धजीव संसार के भीतर ब्रह्माण्ड की सीमा तक भी, सुख के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाने में सदैव व्यस्त रहता है। यहाँ तक कि इस धरा पर, जहाँ वह अपनी सामर्थ्य भर प्रकृति के संसाधनों का दोहन करता है, उपलब्ध समस्त सुविधाओं से तुष्ट नहीं होता। वह चन्द्रमा या शुक्रलोक में भी संसाधनों के दोहन के लिए जाना चाहता है, लेकिन भगवान् ने भगवद्गीता (८.१६) में इस ब्रह्माण्ड के असंख्य लोकों तथा अन्य लोकों की व्यर्थता के विषय में हमें आगाह किया है। ब्रह्माण्डों की संख्या असंख्य है और इनमें से प्रत्येक में असंख्य लोक हैं। लेकिन इनमें से कोई भी लोक भौतिक जीवन के मुख्य दुखों से, यथा जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के दुखों से, विहीन नहीं है। भगवान् का कहना है कि सर्वोच्चलोक, ब्रह्मलोक अथवा सत्यलोक भी (स्वर्गलोक जैसे लोकों का तो कहना ही क्या) रहने के लिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ भी उपर्युक्त दुख पाये जाते हैं। बद्धजीव सकाम कर्म के नियमों से जकड़े हुए हैं। अतएव वे कभी ब्रह्मलोक जाते हैं, तो पुन: पाताल लोक को लौट आते हैं मानो झूले पर चढ़े हुए अज्ञानी बालक हों। असली सुख तो भगवद्धाम में है जहाँ जीव को ये सांसारिक कष्ट नहीं सहन करने होते। अतएव जीवों के लिए सकाम कर्म की वैदिक विधियाँ भ्रामक हैं। मनुष्य इस देश में या अन्यत्र, इस लोक में या दूसरे लोक में, श्रेष्ठतर जीवन की कल्पना करता है, किन्तु संसार में कहीं भी उसकी असली इच्छा की पूर्ति—सच्चिदानन्द रूप जीवन की पूर्ति— नहीं हो पाती। श्रील शुकदेव गोस्वामी अप्रत्यक्ष रूप से, महाराज परीक्षित को यह बताना चाहते हैं कि जीवन की अन्तिम अवस्था में उन्हें अपने मन में स्वर्गलोक जाने की इच्छा नहीं लानी चाहिए, अपितु उन्हें भगवद्धाम जाने की तैयारी करनी चाहिए। न तो कोई भौतिक लोक शाश्वत है, न वहाँ पर उपलब्ध जीवन की सुविधाएँ ही शाश्वत हैं। अतएव उनसे प्राप्त होने वाले क्षणिक सुख को भोगने के लिए वास्तविक विरक्ति ही दिखलानी चाहिए।
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